________________
हैं, वे स्वतः ही विभाव के कारण नहीं हो सकते। विभाव स्वतः प्रसूत नहीं होता, उसका कोई बाह्य निमित्त अवश्य होना चाहिए। जैसे पानी को शीतलता की स्वभाव-दशा से उष्णता की विभावदशा में परिवर्तित होने के लिए स्वस्वभाव से भिन्न अग्नि का संयोग (बाह्य निमित्त) आवश्यक है, वैसे ही आत्मा को ज्ञान-दर्शन रूप स्वस्वभाव का परित्याग कर कषायरूप विभावदशा को ग्रहण करने के लिए बाह्य निमित्त रूप कर्मपुद्गलों का होना आवश्यक है। जैन विचारकों के अनुसार जड़ कर्मपरमाणु और चेतन आत्मा के पारस्परिक सम्बन्ध के बिना विभावदशा या बन्धन कथमपि सम्भव नहीं।
बौद्ध विचारक यह भी मानते हैं कि अमूर्त चैत्तसिक तत्त्व ही अमूर्त चेतना को प्रभावित करते हैं। मूर्त जड़ (रूप) अमूर्त चेतन (नाम) को प्रभावित नहीं करता, लेकिन इस आधार पर जड़-चेतनमय जगत् या बौद्ध परिभाषा में नाम रूपात्मक जगत् की व्याख्या संभव नहीं है। यदि चैत्तसिक तत्त्वों और भौतिक तत्त्वों के मध्य कोई कारणात्मक सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया जाता है, तो उनके सम्बन्धों से उत्पन्न इस जगत् की तार्किक व्याख्या सम्भव नहीं होगी। विज्ञानवादी बौद्धों ने इसी कठिनाई से बचने के लिए भौतिक जगत् (रूप) का निरसन किया, लेकिन यह तो वास्तविकता से मुँह मोड़ना ही था। बौद्ध दार्शन कर्म या बन्धन के मात्र चैत्तसिक पक्ष को ही स्वीकार करता है, लेकिन थोड़ी अधिक गहराई से विचार करने पर दिखाई देता है कि बौद्ध दर्शन में भी दोनों पक्ष मिलते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद में विज्ञान (चेतना) तथा नाम रूप के मध्य कारणसम्बन्ध स्वीकार किया गया है। मिलिन्दप्रश्न में तो स्पष्टरूप से कहा गया है कि नाम (चेतन पक्ष) और रूप (भौतिक पक्ष) अन्योन्याश्रयभाव से सम्बद्ध है। वस्तुतः बौद्ध दर्शन भी नाम (चेतन) और रूप (भौतिक) दोनों के सहयोग से ही कार्य निष्पत्ति मानता है। उसका यह कहना कि चेतना ही कर्म है, केवल इस बात का सूचक है कि कार्य निष्पत्ति में चेतना सक्रिय तत्त्व के रूप में प्रमुख कारण है। कर्म-सिद्धान्त
[21]