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औपक्रमिक निर्जरा के भेद- जैन विचारकों ने इस औपक्रमिक अथवा अविपाक निर्जरा के १२ भेद किये हैं, जो कि तप के ही १२ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं- १. अनशन या उपवास, २. ऊनोदरी- आहार मात्रा में कमी, ३. भिक्षाचर्या अथवा वृत्ति संक्षेप-मर्यादित भोजन, ४. रसपरित्यागस्वादजय, ५. कायाक्लेश-आसनादि, ६. प्रतिसंलीनता- इन्द्रिय-निरोध, कषाय-निरोध, क्रिया-निरोध तथा एकांत निवास, ७. प्रायश्चित- स्वेच्छा से दण्ड ग्रहण कर पाप-शुद्धि या दुष्कर्मों के प्रति पश्चात्ताप, ८. विनयविनम्रवृत्ति तथा वरिष्ठजनों के प्रति सम्मान प्रकट करना, ९. वैयावृत्यसेवा, १०. स्वाध्याय, ११. ध्यान और १२. व्युत्सर्ग- ममत्व-त्याग 2
इस प्रकार साधक संवर के द्वारा नवीन-कर्मों के आस्रव (आगमन) का निरोध कर तथा निर्जरा द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। ८. बौद्ध आचार, दर्शन और निर्जरा
बुद्ध ने स्वतन्त्र रूप से निर्जरा के सम्बन्ध में कुछ कहा हो, ऐसा कहीं दिखाई नहीं दिया, फिर भी अंगुत्तरनिकाय में एक प्रसंग है, जहाँ बुद्ध के अन्तेवासी शिष्य आनन्द निर्ग्रन्थ-परम्परा में प्रचलित निर्जरा का परिष्कार करते हुए बौद्ध-दृष्टिकोण उपस्थित करते हैं। अभय लिच्छवि आनन्द के सम्मुख निर्जरा सम्बन्धी जैन-दृष्टिकोण इन शब्दों में प्रस्तुत करते है- "भन्ते! ज्ञातृ-पुत्र निर्ग्रन्थ का कहना है कि तपस्या से पुराने कर्मों का नाश हो जाता है और कर्मों को न करने से नये कर्मों का घात हो जाता है। इस प्रकार कर्म का क्षय होने से दु:ख का क्षय, दुःख का क्षय होने से वेदना का क्षय और वेदना का क्षय होने से सारे दुःख की निर्जरा होगी। इस प्रकार सांदृष्टिक निर्जरा- विशुद्धि से (दुःख का) अतिक्रमण होता है। भन्ते, भगवान् (बुद्ध) इस विषय में क्या कहते हैं?"
इस प्रकार अभय द्वारा निर्जरा के तप-प्रधान निग्रंथ-दृष्टिकोण को उपस्थित कर निर्जरा के सम्बन्ध में भगवान् बुद्ध की विचारसरणि को जानने की जिज्ञासा प्रकट की गई है। आयुष्मान् आनन्द इस सम्बन्ध में
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त