Book Title: Jain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 144
________________ अल्प-आहार, ध्यान, व्युत्सर्ग (वैराग्य) आदि की भी विवेचना करती है। कहा गया है कि "हे अर्जुन! विशुद्ध बुद्धि से युक्त, एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला तथा अल्प-आहार करने वाला, जीते हुए मन, वाणी और शरीर वाला और दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त पुरुष निरन्तर ध्यानयोग के परायण हुआ, सदैव वैराग्यमुक्त, अन्तःकरण को वश में करके तथा इन्द्रियों के शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग-द्वेषों को नष्ट करके तथा अहंकार बल, घमण्ड, काम, क्रोध और संग्रह को त्यागकर, ममतारहित और शान्त अन्त:करण हुआ, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव होने के योग्य हो जाता है। 27 यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो गीताकार के इस कथन में संवर और निर्जरा के अधिकांश तथ्य समाविष्ट हैं। यहाँ गीता का दृष्टिकोण जैन विचारणा के अत्यन्त समीप आ जाता है। १०. निष्कर्ष इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन बंधन से मुक्ति के लिये दो उपायों पर बल देते हैं- नवीन बंध से बचने के लिये संयम और पुरातन बंधन से छूटने के लिये तप, ज्ञान भक्ति या ध्यान । जहाँ तक संयम की बात है, तीनों आचार-दर्शन उसे लगभग समान रूप से स्वीकार करते हैं। तीनों के लिये संयम का अर्थ केवल इन्द्रियव्यापारों का निरोध न होकर उसके पीछे रही हुई आसक्ति का क्षय भी है। जहाँ तक पुरातन कर्मों से छूटने के साधन का प्रश्न है जैन-दर्शन तप पर, बौद्ध-दर्शन ध्यान (चित्त-निरोध) पर तथा गीता ज्ञान एवं भक्ति पर अधिक बल देती है, लेकिन जैसा कि हमने देखा, जैन-दर्शन का तप ज्ञान समन्वित है तो गीता का ज्ञानमार्ग भी तप एवं संयम से युक्त है। बौद्धदर्शन का ध्यान भी जैन-दर्शन और गीता दोनों को ही स्वीकृत है। जो भी अन्तर प्रतीत होता है, वह शब्दों का है, मूलात्मा का नहीं। जैन-दर्शन में निर्जरा के साधन रूप जिस तप का विधान है, उसमें ज्ञान और ध्यान दोनों ही समाहित है। तीनों आचार-दर्शन साधक से यह अपेक्षा करते हैं कि बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा) [137]

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