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उद्धतपन (चंचलता), ५.लोभो (तृष्णा), ६. दिट्ठि-मिथ्यादृष्टि, ७. मानोअहंकार, ८. दोसो-द्वेष, ९. इस्सा-ईर्ष्या (दूसरे की सम्पत्ति को न सह सकना), १०. मच्छीरियं-मात्सर्य्य (अपनी सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति) ११. कुक्कुच्च-कोकृत्य (कृत अकृत के बारे में पश्चात्ताप) १२. थीनं, १३. मिद्धं, १४. विचिकिच्छा-विचिकित्सा (संशय)। गीता का दृष्टिकोण ____ गीता में भी जैन और बौद्ध दर्शन में स्वीकृत इन पापाचरणों या विकर्मों का उल्लेख आसुरी सम्पदा के रूप में किया गया है। गीतारहस्य में तिलक ने मनुस्मृति के आधार पर निम्न दस प्रकार के पापाचरण का वर्णन किया है।
१. कायिक - १. हिंसा, २. चोरी, ३. व्याभिचार।
२. वाचिक - ४. मिथ्या (असत्य), ५. ताना मारना, ६. कटु वचन, ७. असंगत वाणी।
३. मानसिक - ८. परद्रव्य की अभिलाषा, ९. अहित चिन्तन, १०. व्यर्थ आग्रह। पाप के कारण ___ जैन विचारकों के अनुसार पापकर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं१. राग (आसक्ति), २. द्वेष (घृणा), ३. मोह (अज्ञान)। जीव राग, द्वेष
और मोह से ही पापकर्म करता है। बुद्ध के अनुसार भी पापकर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं- १. लोभ (राग), २. द्वेष और ३. मोह। गीता के अनुसार काम (राग ) और क्रोध ही पाप के कारण हैं। ३. पुण्य (कुशल कर्म)
पुण्य वह है जिसके कारण सामाजिक एवं भौतिक स्तर पर समत्व की स्थापना होती है। मन, शरीर और बाह्य परिवेश में सन्तुलन बनाना यह पुण्य का कार्य है। पुण्य क्या है इसकी व्याख्या में तत्त्वार्थसूत्रकार [52]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त