Book Title: Jain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 123
________________ जैन दृष्टिकोण उपर्युक्त तीनों पक्षों पर बन्धन के कारण की दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि चेतना का ज्ञानात्मक पक्ष या ज्ञान- चेतना बन्धन का कारण नहीं हो सकती है। ज्ञान चेतना तो मुक्त जीवात्माओं में भी होती है, अतः उसे बन्धन का कारण मानना असंगत है । कर्मफलचेतना या चेतना के अनुभूयात्मक पक्ष को भी अपने आप में बन्धन का कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि अर्हत् या केवली में भी वेदनीय कर्म का फल भोगने के कारण कर्मफल चेतना तो होती है, लेकिन वह उसके बन्धन का कारण नहीं बनती । उत्तराध्ययनसूत्र स्पष्ट रूप से कहता है कि इन्द्रियों के माध्यम से होने वाली सुखद और दुःखद अनुभूतियाँ वीतराग के मन में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं कर सकतीं।” इस प्रकार न चेतना का ज्ञानात्मक पक्ष बन्धन का कारण है, न अनुभूयात्मक पक्ष बन्धन का कारण है । चेतना के तीसरे संकल्पात्मक पक्ष को, जिसे कर्मचेतना कहा जाता है, बन्धन का कारण माना जा सकता है, क्योंकि शेष दो ज्ञानचेतना और अनुभवचेतना तो चेतना की निष्क्रिय अवस्थाएँ हैं, यद्यपि उनमें प्रतिबिम्बित होने वाली बाह्य घटनाएँ सक्रिय तत्त्व हैं, लेकिन कर्म- चेतना स्वत: ही सक्रिय अवस्था है। संकल्प, विकल्प एवं राग-द्वेषादि भावों का जन्म चेतना की इसी अवस्था में होता है अतः जैन-दर्शन में चेतना का यही संकल्पात्मक पक्ष बन्धन का कारण माना गया है, यद्यपि इसके पीछे उपादान कारक के रूप में भौतिक तथ्यों से प्रभावित होने वाली कर्मफल चेतना का हाथ अवश्य होता है । कुछ विचारकों ने कर्म-चेतना को भी निष्क्रिय क्रियाचेतना के रूप में समझने की कोशिश की है, लेकिन ऐसी अवस्था में चेतना का कोई भी सक्रिय पक्ष नहीं रहने से बन्धन की व्याख्या संभव नहीं होगी। यदि कर्म - चेतना केवल क्रिया के होने का ज्ञान है तो फिर वह ज्ञान चेतना या कर्मफल चेतना से भिन्न नहीं होगी । अतः कर्मचेतना की निष्क्रिय रूप में व्याख्या उचित प्रतीत नहीं होती है । केवल जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त [116]

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