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बन्धन से मुक्ति की ओर ( संवर और निर्जरा )
यद्यपि यह सत्य है कि आत्मा के पूर्वकर्म - संस्कारों के कारण बन्धन की प्रक्रिया अविराम गति से चल रही है । पूर्वकर्म - संस्कार विपाक के अवसर पर आत्मा को प्रभावित करते हैं और उसके परिणामस्वरूप मानसिक एवं शारीरिक क्रिया - व्यापार होता है और उस क्रिया व्यापार के कारण नवीन कर्मास्रव एवं कर्म-बन्ध होता है । अतः यह प्रश्न उपस्थित होता हैं कि बन्धन से मुक्त कैसे हुआ जाय ? जैन दर्शन बन्धन से बचने के लिए जो उपाय बताता है, उसे संवर कहते हैं ।
१. संवर का अर्थ
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार आस्रव निरोध संवर है ।' संवर मोक्ष का मूल-कारण' तथा नैतिक साधना का प्रथम सोपान है। संवर शब्द सम् उपसर्गपूर्वक वृ धातु से बना है । वृ धातु का अर्थ है रोकना या निरोध करना। इस प्रकार संवर शब्द का अर्थ है आत्मा में प्रवेश करने वाले कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को रोक देना । सामान्यतः शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं का यथाशक्य निरोध ( रोकना) करना संवर है, क्योंकि क्रियाएँ ही आस्रव का कारण हैं। जैन - परम्परा में संवर को कर्मपरमाणुओं के आस्रव को रोकने के अर्थ में और बौद्ध परम्परा में क्रिया के निरोध के अर्थ में स्वीकार किया गया है, क्योंकि बौद्ध - परम्परा में कर्मवर्गणा (परमाणुओं) का भौतिक स्वरूप मान्य नहीं है, अतः
वे संवर
बन्धन से मुक्ति की ओर ( संवर और निर्जरा)
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