Book Title: Jain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 135
________________ स्वाभाविक नियम तो पशुओं में भी होते हैं। उनका आचार-व्यवहार उन्हीं नियमों से शासित होता है। वे आहार की मात्रा, रक्षा के उपाय आदि का निश्चय इन स्वाभाविक नियमों के सहारे करते हैं, लेकिन मनुष्य की सार्थकता इसी में है कि वह स्वचिन्तन के आधार पर अपने हिताहित का ध्यान रखकर ऐसी मर्यादाएँ निश्चित करे जिससे वह परमसाध्य को प्राप्त कर सके। कांट ने कहा है कि "अन्य पदार्थ नियम के अधीन चलते हैं। मनुष्य नियम के प्रत्यय के आधीन भी चल सकता है अन्य शब्दों में उसके लिए आदर्श बनाना और उन पर चलना संभव है।" __मनुष्य अपने को पूर्ण रूप से प्रकृति पर आश्रित नहीं छोड़ता। वह प्रकृति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन नहीं करता। मानव-जाति का इतिहास यह बताता है कि मनुष्य ने प्रकृति से शासित होने की अपेक्षा उस पर शासन करने का प्रयत्न किया है। फिर आचार के क्षेत्र में यह दावा कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि मनुष्य को अपनी वृत्तियों की पूर्ति हेतु मानवों द्वारा निर्मित नैतिक मर्यादाओं द्वारा शासित नहीं करके स्वतंत्र परिचारण करने देना चाहिए। मनुष्य ने जीवन में कृत्रिमता को अधिक स्थान दे दिया है और इस हेतु उनके लिए अधिक निर्मित नैतिक मर्यादाओं की आवश्यकता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यह मनुष्य के सम्बन्ध में दूसरा मुद्रालेख है। यह व्यक्त करता है कि मनुष्य के नियम ऐसे होने चाहिए जो उसे सामाजिक प्राणी बनाये रखें। यदि वह इतना नहीं करे, तो भी सामाजिक व्यवस्था में व्याघात उत्पन्न करे, ऐसी आचार विधि के निर्माण का अधिकार उसे प्राप्त नहीं है। उपर्युक्त निश्चय के आधार पर मनुष्य की आचार-विधि या नैतिक मर्यादाएँ दो प्रकार की हो सकती हैं- समाजगत और आत्मगत। पाश्चात्य विचारक भी ऐसे ही दो विभाग करते हैं- १. उपयोगितावादी सिद्धान्त, २. अन्तरात्मक सिद्धान्त। लेकिन निरपेक्ष रूप से न तो समाजगत विधि ही अपनायी जा सकती है और न आत्मगत। दोनों का महत्व सापेक्ष है। यह तथ्य अलग है कि [128 ] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त

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