Book Title: Jain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 137
________________ कि मोटर कहीं से कहीं जा गिरेगी । ताल व वाद्य पर नियंत्रण न रहा तो संगीत का सारा मजा किरकिरा हो जायेगा । इस प्रकार स्पष्ट है कि संयम के बिना जीवन चल नहीं सकता, सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती । संयम रूपी ब्रेक हर काम में आवश्यक है । जीवन की यात्रा में संयम रूपी ब्रेक न हो तो महान् अनर्थ हो सकता है। सामाजिक जीवन में भी संयम के अभाव में सुखद जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । सामाजिक जीवन में संयम के बिना प्रवेश करना संभव नहीं । व्यक्ति जब तक अपने हितों को मर्यादित नहीं कर सकता और अपनी आकांक्षाओं को समाज हित में बलिदान नहीं कर सकता, वह सामाजिक जीवन के अयोग्य है । समाज में शांति और समृद्धि इसी आधार पर संभव है, जब उसके सदस्य अपने हितों का नियंत्रण करना जानें। सामाजिक जीवन में हमें हितों की प्राप्ति के लिए एक सीमारेखा निश्चित करनी होती है । हम अपने हितसाधन की सीमा वहीं तक बढ़ा सकते हैं, जहाँ तक दूसरे के हित की सीमा प्रारम्भ होती है। समाज में व्यक्ति अपना स्वार्थ साधन वहीं तक कर सकता है जहाँ तक उससे दूसरे का अहित न हो। इस सामाजिक जीवन के आवश्यक तत्त्व हैं- अनुशासन, २. सहयोग की भावना और ३. अपने हितों का बलिदान करने की क्षमता । क्या इन सबका आधार संयम नहीं है? सच्चाई यह है कि संयम के बिना सामाजिक जीवन की कल्पना ही संभव नहीं । संयम और मानव-जीवन ऐसे घुले-मिले तथ्य हैं कि उनसे परे सुव्यवस्थित जीवन की कल्पना संभव नहीं दिखाई देती । संयम का दूसरा रूप ही मर्यादित जीवन-व्यवस्था है । मनुष्य के लिए अमर्यादित जीवनव्यवस्था संभव नहीं है। हम सभी ओर से मर्यादाओं से आबद्ध हैं । प्राकृतिक मर्यादाएँ, व्यक्तिगत मर्यादाएँ, पारिवारिक मर्यादाएँ, समाजिक मर्यादाएँ, राष्ट्रीय मर्यादाएँ, और अन्तर्राष्ट्रीय मर्यादाएँ सभी से मनुष्य बंधा जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त [130]

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