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धम्मपद में बुद्ध कहते हैं, 'भिक्षुओं ! आँख का संवर उत्तम है, श्रोत्र का संवर उत्तम है, भिक्षुओं ! नासिका का संवर उत्तम है और उत्तम है जिह्वा का संवर । मन, वाणी और शरीर सभी का संवर उत्तम है । जो भिक्षु पूर्णतया संवृत है, वह समग्र दुःखों से शीघ्र ही छूट जाता है । "12
इस प्रकार बौद्ध दर्शन में संवर का तत्त्व स्वीकृत रहा है । इन्द्रियनिग्रह और मन, वाणी एवं शरीर के संयम को दोनों परम्पराओं ने स्वीकार किया है। दोनों ही संवर ( संयम) को नवीन कर्म-संतति से बचने का उपाय तथा निर्वाण - मार्ग का सहायक तत्त्व स्वीकार करते हैं । दशवैकालिकसूत्र के समान बुद्ध भी सच्चे साधक को सुसमाहित (सुसंवृत) रूप में देखना चाहते हैं । वे कहते हैं कि " भिक्षु वस्तुतः वह कहलाता है, जो हाथ और पैर का संयम करता है, जो वाणी का संयम करता है, जो उत्तम रूप से संयत है, जो अध्यात्म में स्थित है, जो समाधि युक्त है और संतुष्ट है। 13
४. गीता का दृष्टिकोण
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गीता में संवर शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, फिर भी मन, वाणी, शरीर और इन्द्रियों के संयम का विचार तो उसमें है ही । सूत्रकृतांग के समान कछुए का उदाहरण देते हुए गीताकार भी कहता है कि " कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही साधक जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को, इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है। '' 14
" हे अर्जुन ! यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी यह प्रमथन-स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती हैं । जैसे- जल में वायु नाव को हर लेता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि का हरण कर लेती है । हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार के इन्द्रियों-विषयों से वश में होती हैं उसकी बुद्धि बन्धन से मुक्ति की ओर ( संवर और निर्जरा)
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