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पुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण
भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण कहा गया है। स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के पुण्य निरूपित है2१. अन्नपुण्य - भोजनादि देकर क्षुधार्त की क्षुधा निवृत्ति करना। २. पानपुण्य - तृषा (प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना। ३. लयनपुण्य - निवास के लिए स्थान देना जैसे धर्मशालाएँ आदि
बनवाना। ४. शयनपुण्य - शय्या, बिछौना आदि देना। ५. वस्त्रपुण्य - वस्त्र का दान देना। ६. मनपुण्य - मन से शुभ विचार करना। जगत् के मंगल की शुभकामना
करना।
७. वचनपुण्य - प्रशस्त एवं संतोष देनेवाली वाणी का प्रयोग करना। ८. कायपुण्य - रोगी, दुःखित एवं पूज्यजनों की सेवा करना।
नमस्कारपुण्य - गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका
अभिवादन करना।
बौद्ध आचारदर्शन में भी पुण्य के इस दानात्मक स्वरूप की चर्चा मिलती है। संयुक्तनिकाय में कहा गया है, अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, आसन एवं चादर के दानी पण्डित पुरुष में पुण्य की धाराएँ आ गिरती हैं। अभिधम्मत्थसंगहो में १. श्रद्धा, २. अप्रमत्तता (स्मृति), ३. पाप कर्म के प्रति लज्जा, ४. पाप कर्म के प्रति भय, ५. अलोभ (त्याग), ६. अद्वैष (मैत्री), ७. समभाव, ८. मन की पवित्रता शरीर की प्रसन्नता, १०. मन का हलकापन, ११. शरीर का हलकापन, मन की मृदुता, १२. शरीर की मृदुता, १३. मन की सरलता, शरीर की सरलता आदि को भी कुशल चैतसिक कहा गया है।
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त