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६. मृषा क्रिया- झूठ बोलना ।
७. अदत्तादान क्रिया- चौर्य कर्म करना ।
८. अध्यात्म क्रिया- बाह्य निमित्त के अभाव में होने वाले मनोविकार अर्थात् बिना समुचित कारण के मन में होने वाला क्रोध आदि दुर्भाव । ९. मान क्रिया- अपनी प्रशंसा या घमण्ड करना ।
१०. मित्र क्रिया - प्रियजनों, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू, पत्नी आदि को कठोर दण्ड देना ।
११. माया क्रिया- कपट करना, ढोंग करना।
१२. लोभ क्रिया - लोभ करना ।
१३. ईर्यापथिकी क्रिया- अप्रमत्त, विवेकी एवं संयमी व्यक्ति की गमनागमन एवं आहार-विहार की क्रिया ।
वैसे मूलभूत आस्रव योग (क्रिया) है, लेकिन यह समग्र क्रियाव्यापार भी स्वतः प्रसूत नहीं है । उसके भी प्रेरक सूत्र हैं जिन्हें आस्रवद्वार या बन्ध हेतु कहा गया है। समवायांग, ऋषिभाषित एवं तत्त्वार्थसूत्र में इनकी संख्या ५ मानी गयी है ( १ ) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग (क्रिया) । समयसार में इनमें से ४ का उल्लेख मिलता है, उसमें प्रमाद का उल्लेख नहीं । 12 उपर्युक्त पाँच प्रमुख आस्रव-द्वार या बन्धहेतुओं को पुनः अनेक भेद-प्रभेदों में वर्गीकृत किया गया है। यहाँ केवल नामनिर्देश करना पर्याप्त है । पाँच आस्रव द्वारों या बन्धहेतुओं के अवान्तर भेद इस प्रकार हैं
१. मिथ्यात्व - मिथ्यात्व अयथार्थ दृष्टिकोण है जो पाँच प्रकार का है - (१) एकान्त, (२) विपरीत, (३) विनय, (४) संशय और (५) अज्ञान । २. अविरति - यह अमर्यादित एवं असंयमित जीवन प्रणाली है। इसके भी पाँच भेद हैं- (१) हिंसा, (२) असत्य, (३) स्तेयवृत्ति, (४) मैथुन ( काम वासना) और (५) परिग्रह ( आसक्ति) ।
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त