Book Title: Jain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 119
________________ इच्छा उदित होती है, वह विभव तृष्णा है । यह द्वेष स्थानीय एवं अनस्तित्व की तृष्णा है 1 तृष्णा लोभ का ही रूप है । इस प्रकार यह जैन- दर्शन के चारित्रमोह कर्म के अन्तर्गत आ जाती है। एक दूसरे प्रकार से तृष्णा अपूर्ण या अतृप्त इच्छा है और इस प्रकार यह अन्तराय कर्म से भी तुलनीय है, यद्यपि दोनों में अधिक निकटता नहीं है । ९. उपादान- उपादान का अर्थ आसक्ति है जो तृष्णा के कारण होती है । उपादान चार प्रकार के हैं- १. कामूपादान - कामभोग में गृद्ध बने रहना, २ . दिट्ठपादान - मिथ्या धारणाओं से चिपके रहना, ३. सीलब्बूत्तूपादान- व्यर्थ के कर्मकाण्डों में लगे रहना और ४. अत्तवादूपादानआत्मवाद में आसक्ति रखना । उपादान का सम्बन्ध भी मोहनीय कर्म से ही माना जा सकता है। दिट्टूपादान, सीलब्बूत्तुपादान और अत्तवादूपादान का सम्बन्ध दर्शन-मोह से और कामूपादान का सम्बन्ध चारित्रमोह से है। वैसे ये उपादान वैयक्तिक पुरुषार्थ को सन्मार्ग की दिशा में लगाने में बाधक हैं और इस रूप में वीर्यान्तराय के समान हैं । १०. भव- भव का अर्थ है पुनर्जन्म कराने वाला कर्म । भव दो प्रकार का है- कम्मभव और उप्पत्तिभव । जो कर्म पुनर्जन्म कराने वाला है वह कर्मभव (कम्मभव) है और जिस उपादान को लेकर व्यक्ति लोक में जन्म ग्रहण करता है वह उत्पत्तिभव (उप्पत्तिभव) है । भव जैन- दर्शन के आयुष्य कर्म से तुलनीय है । कम्मभव यानी जीवन सम्बन्धी आयुष्य कर्म का बन्ध है जो तृष्णा या मोह के कारण होता है । उप्पत्तिभव वर्तमान जीवन सम्बन्धी आयुष्य कर्म है। ११. जाति- देवों का देवत्व, मनुष्यों का मनुष्यत्व, चतुष्पदों का चतुष्पदत्व जाति कहा जाता है । जाति भावी जन्म की योनि का निश्चय है जिससे पुनः जन्म ग्रहण करना होता है । जाति की तुलना जैन दर्शन के जाति नाम कर्म से और कुछ रूप में गोत्र - कर्म से की जा सकती है। जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त [112]

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