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अर्हतों को क्षीणाम्रव कहते हैं। बौद्धविचारणा में आस्रव तीन माने गये हैं- (१) काम, (२) भव और (३) अविद्या, लेकिन अभिधर्म में दृष्टि को भी आस्रव कहा गया है। अविद्या और मिथ्यात्व समानार्थी हैं ही। काम को कषाय के अर्थ में लिया जा सकता है और भव को पुर्नजन्म के अर्थ में। धम्मपद में प्रमाद को आस्रव का कारण कहा गया है। बुद्ध कहते हैं, जो कर्तव्य को छोड़ता है और अकर्तव्य को करता है ऐसे मलयुक्त प्रमादियों के आस्रव बढ़ते हैं। इस प्रकार जैन विचारणा के समान बौद्ध विचारणा में भी प्रमाद आस्रव का कारण है।
बौद्ध और जैन विचारणाओं में इस अर्थ में भी आस्रव के विचार के सम्बन्ध में मतैक्य है कि आस्रव अविद्या (मिथ्यात्व) के कारण होता है, लेकिन यह अविद्या या मिथ्यात्व भी अकारण नहीं, वरन् आस्रवप्रसूत है। जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परम्परा चलती है, वैसे ही अविद्या (मिथ्यात्व) से आस्रव और आस्रव से अविद्या (मिथ्यात्व) की परम्परा परस्पर सापेक्षरूप में चलती रहती है। बुद्ध ने जहाँ अविद्या को आस्रव का कारण माना, वहाँ यह भी बताया कि आस्रवों के समुदय से अविद्या का समुदय होता है।" एक के अनुसार आस्रव चित्त-मल है, दूसरे के अनुसार वे आत्म-मल है, लेकिन इस आत्मवाद सम्बन्धी दार्शनिक भेद के होते हुए भी दोनों का साधनामार्ग आस्रव-क्षय के निमित्त ही है। दोनों की दृष्टि में आस्रवक्षय ही निर्वाण-प्राप्ति का प्रथम सोपान है। बुद्ध कहते हैं, "भिक्षुओ, संस्कार, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, अविद्या आदि सभी अनित्य, संस्कृत और किसी कारण से उत्पन्न होने वाले हैं। भिक्षुओ इसे भी जान लेने और देख लेने से आस्रवों का क्षय होता है।"18
जैसे जैनपरम्परा में राग, द्वेष और मोह बन्धन के मूलभूत कारण माने गये हैं, वैसे ही बौद्ध परम्परा में लोभ (राग), द्वेष और मोह को बन्धन (कर्मों की उत्पत्ति) का कारण माना गया है। जो मूर्ख लोभ, द्वेष और मोह से प्रेरित होकर छोटा या बड़ा जो भी कर्म करता है, उसे उसी को
कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
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