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बीज कहा गया है। और उन दोनों का कारण मोह बताया गया है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, फिर भी उनमें राग ही प्रमुख है। राग के कारण ही द्वेष होता है। जैन कथानकों के अनुसार इन्द्रभूति गौतम का महावीर के प्रति प्रशस्त राग भी उनके कैवल्य की उपलब्धि में बाधक रहा था। इस प्रकार राग एवं मोह (अज्ञान) ही बन्धन के प्रमुख कारण हैं। आचार्य कुन्दकुन्द राग को प्रमुख कारण बताते हुए कहते हैं, आसक्त आत्मा ही कर्म-बन्ध करता है और अनासक्त मुक्त हो जाता है, यही जिन भगवान् का उपदेश है। इसलिए कर्मों में आसक्ति मत रखो, लेकिन यदि राग (आसक्ति) का कारण जानना चाहें तो जैन परम्परा के अनुसार मोह ही इसका कारण सिद्ध होता है। यद्यपि मोह और राग-द्वेष सापेक्षरूप में एक दूसरे के कारण बनते हैं। इस प्रकार द्वेष का कारण राग और राग का कारण मोह है। मोह तथा राग (आसक्ति) परस्पर एक दूसरे के कारण हैं। अतः राग, द्वेष और मोह ये तीन ही जैन परम्परा में बन्धन के मूल कारण हैं। इसमें से द्वेष को जो राग (आसक्ति) जनित है, छोड़ देने पर शेष राग (आसक्ति) और मोह (अज्ञान) ये दो कारण बचते हैं, जो अन्योन्याश्रित हैं। बौद्ध दर्शन में बन्धन (दुःख) का कारण
जैनविचारणा की भाँति ही बौद्धविचारणा में भी बन्धन या दुःख का हेतु आस्रव माना गया है। उसमें भी आस्रव (आसव) शब्द का उपयोग लगभग समान अर्थ में ही हुआ है। यही कारण है कि श्री एस० सी० घोषाल आदि कुछ विचारकों ने यह मान लिया कि बौद्धों ने यह शब्द जैनों से लिया है। मेरी अपनी दृष्टि में यह शब्द तत्कालीन श्रमण परम्परा का सामान्य शब्द था। बौद्धपरम्परा में आस्रव शब्द की व्याख्या यह है कि जो मदिरा (आसव) के समान ज्ञान का विपर्यय करे वह आस्रव है। दूसरे जिससे संसाररूपी दुःख का प्रसव होता है वह आस्रव है।
जैन दर्शन में आस्रव को संसार (भव) एवं बन्धन का कारण माना गया है। बौद्धदर्शन में आस्रव को भव का हेतु कहा गया है। दोनों दर्शन [88]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त