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वह कर्म कहाँ तक बद्ध करेगा, करने पर भी जो कर्म हमें बद्ध नहीं करता उसके विषय में कहना चाहिए कि उसका कर्मत्व अथवा बन्धकत्व नष्ट हो गया। यदि किसी भी कर्म का बन्धकत्व अर्थात् कर्मत्व इस प्रकार नष्ट हो जाय तो फिर वह कर्म अकर्म ही हुआ । कर्म के बन्धकत्व से यह निश्चय किया जाता है कि वह कर्म है या अकर्म 172 जैन और बौद्ध आचारदर्शन में अर्हत् के क्रिया व्यापार को तथा गीता में स्थितप्रज्ञ के क्रिया व्यापार को बन्धन और विपाकरहित माना गया है, क्योंकि अर्हत् या स्थितप्रज्ञ में राग- - द्वेष और मोहरूपी वासनाओं का पूर्णतया अभाव होता है । अतः उसका क्रिया - व्यापार बन्धनकारक नहीं होता और इसलिए वह अकर्म कहा जाता है । इस प्रकार तीनों आचारदर्शन इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि वासना एवं कषाय से रहित निष्काम कर्म अकर्म है और वासनासहित सकाम कर्म ही कर्म है, बन्धन कारक है ।
उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कर्म-अकर्म विवक्षा में कर्म का चैत्तसिक पक्ष ही महत्वपूर्ण है। कौन - सा कर्म बन्धनकारकं है और कौन - सा कर्म बन्धनकारक नहीं है, इसका निर्णय क्रिया के बाह्य स्वरूप से नहीं वरन् क्रिया के मूल में निहित चेतना की रागात्मकता के आधार पर होगा। पं. सुखलालजी कर्मग्रन्थ की भूमिका में लिखते हैं, साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम नहीं करने से अपने को पुण्य पाप का लेप नहीं लगेगा, इससे वे काम को छोड़ देते हैं। पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती । इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्य पाप के लेप (बन्ध) से अपने को मुक्त नहीं कर सकते। यदि कषाय ( रागादिभाव) नहीं है तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन में रखने में समर्थ नहीं है। इससे उल्टे यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छुड़ा नहीं सकता। इसी से यह कहा जाता है कि आसक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है वह बन्धनकारक नहीं होता । 73
कर्म का अशुभत्व शुभत्व एवं शुद्धत्व
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