________________
तत्त्वार्थसूत्र में आस्रव दो प्रकार का माना गया है- (१) ईर्यापथिक और (२) साम्परायिक। जैन दर्शन गीता के समान यह स्वीकार करता है कि जब तक जीवन है, तब तक शरीर से निष्क्रिय नहीं रहा जा सकता। मानसिक वृत्ति के साथ ही साथ सहज शारीरिक एवं वाचिक क्रियाएँ भी चलती रहती हैं और क्रिया के फलस्वरूप कर्मास्रव भी होता रहता है, लेकिन जो व्यक्ति कलुषित मानसिक वृत्तियों (कषायों) के ऊपर उठ जाता है, उसकी और सामान्य व्यक्तियों की क्रियाओं के द्वारा होने वाले आस्रव में अन्तर तो अवश्य ही मानना होगा। कषायवृत्ति (दूषित मनोवृत्ति) से ऊपर उठे व्यक्ति की क्रियाओं के द्वारा जो आस्रव होता है, उसे जैन परिभाषा में ईर्यापथिक आस्रव कहते हैं। जिस प्रकार चलते हुए रास्ते की धूल का सूखा कण पहले क्षण में सूखे वस्त्र पर लगता है, लेकिन गति के साथ ही दूसरे क्षण में विलग हो जाता है, उसी प्रकार कषायवृत्ति से रहित क्रियाओं से पहले क्षण में आस्रव होता है और दूसरे क्षण में वह निर्जरित हो जाता है। ऐसी क्रिया आत्मा में कोई विभाव उत्पन्न नहीं करती, किन्तु जो क्रियाएँ कषायसहित होती हैं उनसे साम्परायिक आस्रव होता है। साम्परायिक आस्रव आत्मा के स्वभाव का आवरण कर उसमें विभाव उत्पन्न करता है।
तत्त्वार्थसूत्र में साम्परायिक आस्रव का आधार ३८ प्रकार की क्रियाएँ हैं१-५, हिंसा, असत्य-भाषण, चोरी, मैथुन, संग्रह (परिग्रह) ये पाँच अव्रत ६-९, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय १०-१४, पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन १५-३८, चौबीस साम्परायिक क्रियाएँ
१. कायिकी क्रिया- शारीरिक हलन-चलन आदि क्रियाएँ कायिकी क्रिया कही जाती हैं। यह तीन प्रकार हैं- (अ) मिथ्यादृष्टि प्रमत्त जीव की क्रिया, (ब) सम्यक् दृष्टि प्रमत्त जीव की क्रिया, (स) सम्यक्दृष्टि अप्रमत्त साधक की क्रिया। इन्हें क्रमशः अविरत कायिकी, दुष्प्रणिहित कायिकी और उपरत कायिकी क्रिया कहा जाता है।
[ 82]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त