Book Title: Jain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 71
________________ (कर्म) रज रहित हो गया है, जो जन्म-मरण से परे हो गया है, वह श्रमण स्थिर, स्थितात्मा (तथता) कहलाता है। सभिय परिव्राजक द्वारा बुद्ध वंदना में यही बात दोहरायी गयी है। वह बुद्ध के प्रति कहता है, 'जिस प्रकार सुन्दर पुण्डरीक कमल पानी में लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार आप पुण्य और पाप दोनों में लिप्त नहीं होते। इस प्रकार बौद्ध दर्शन का भी अन्तिम लक्ष्य शुभ और अशुभ से ऊपर उठना है। गीता का दृष्टिकोण ____गीताकार ने भी यह संकेत किया है मुक्ति के लिए शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मफलों से मुक्त होना आवश्यक है। श्री कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, तू जो भी कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है अथवा तप करता है वह सभी शुभाशुभ कर्म मुझे अर्पित कर दे अर्थात् उनके प्रति किसी प्रकार की आसक्ति या कर्तृत्वभाव मत रख। इस प्रकार संन्यास योग से युक्त होने पर तू शुभाशुभ फल देनेवाले कर्म बन्धन से छूट जायेगा और मुझे प्राप्त होवेगा2 गीताकार स्पष्ट करता है कि शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म बन्धन हैं और मुक्ति के लिए उनसे ऊपर उठना आवश्यक है। बुद्धिमान मनुष्य शुभ और अशुभ या पुण्य और पाप दोनों को त्याग देता है। सच्चे भक्त का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जो शुभ और अशुभ दोनों का परित्याग कर चुका है अर्थात् जो दोनों से ऊपर उठ चुका है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है। डॉ. राधाकृष्णन् ने गीता के परिचयात्मक निबन्ध में भी इस धारणा को प्रस्तुत किया। वे आचार्य कुन्दकुन्द के साथ सम:वर होकर कहते हैं, चाहे हम अच्छी इच्छाओं के बन्धन में बंधे हों या बुरी इच्छओं के, बन्धन तो दोनों ही हैं। इससे क्या अन्तर पड़ता है कि जिन जंजीरों में हम बंधे हैं वे सोने की है या लोहे की जैन दर्शन के समान गीता भी यही कहती है कि जब पुण्य कर्मों के सम्पादन द्वारा पाप कर्मों का क्षय कर दिया जाता है, तब वह पुरुष राग द्वेष के द्वन्द्व से मुक्त होकर दृढ़ निश्चयपूर्वक मेरी भक्ति [64] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त

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