________________
१. कर्म
नाम कर्म है।
-
फल की इच्छा से जो शुभ कर्म किये जाते हैं, उसका
२. विकर्म
समस्त अशुभ कर्म जो वासनाओं की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, उन्हें विकर्म कहा गया है। साथ ही फल की इच्छा एवं अशुभ भावना से जो दान, तप, सेवा आदि शुभ कर्म किये जाते हैं, वे भी विकर्म कहलाते हैं। गीता में कहा गया है, जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से मन, वाणी, शरीर की पीड़ासहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के विचार से किया जाता है वह तामस कहा जाता है 16 साधारणतया मन, वाणी एवं शरीर से होनेवाले हिंसा, असत्य, चोरी आदि निषिद्ध कर्म मात्र ही विकर्म समझे जाते हैं, परन्तु बाह्य रूप से विकर्म प्रतीत होने वाले कर्म भी कभी कर्ता की भावनानुसार कर्म या अकर्म के रूप में बदल जाते हैं। आसक्ति और अहंकार से रहित होकर शुद्ध भाव एवं मात्र कर्तव्य - बुद्धि से किये जानेवाले कर्म (जो बाह्यतः विकर्म प्रतीत होते हैं) भी फलोत्पादक न होने से अकर्म ही हैं 57
-
३.
अकर्म - फलसक्तिरहित हो अपना कर्तव्य समझकर जो भी कर्म किया जाता है उस कर्म का नाम अकर्म है। गीता के अनुसार, परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित होकर कर्तापन के अभिमान से रहित पुरुष द्वारा जो कर्म किया जाता है, वह मुक्ति के अतिरिक्त अन्य फल नहीं देने वाला होने से अकर्म ही है 1 58
११. अकर्म की अर्थ - विवक्षा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार
जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन क्रिया - व्यापार को बन्धकत्व की दृष्टि से दो भागों में बांट देते हैं - १. बन्धक कर्म और २. अबन्धक कर्म । अबन्धक क्रिया - व्यापार को जैन दर्शन में अकर्म या ईर्यापथिक कर्म, बौद्धदर्शन में अकृष्ण- अशुक्ल कर्म या अव्यक्त कर्म तथा गीता में अकर्म कहा गया है। सभी समालोच्य आचारदर्शनों की दृष्टि में अकर्म कर्म - अभाव नहीं है। जैन विचारणा के अनुसार कर्म प्रकृति के उदय को कर्म का अशुभत्व शुभत्व एवं शुद्धत्व
[71]