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है, तो भी डॉक्टर अपनी शुभ भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है । 17 पंडित सुखलाल जी भी यही कहते हैं, पुण्य बंध और पाप बंध की सच्ची कसौटी केवल ऊपरी क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय ही है। 18
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में भी कर्मों की शुभाशुभता के निर्णय का आधार मनोवृत्तियाँ ही हैं, फिर भी उसमें कर्म का बाह्यस्वरूप उपेक्षित नहीं है। निश्चय दृष्टि से तो मनोवृत्तियाँ ही कर्मों की शुभाशुभता कि निर्णायक हैं, फिर भी व्यवहारदृष्टि से कर्म का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता का निश्चय करता है । सूत्रकृतांग में आर्द्रककुमार बौद्धों की एकांगी धारणा का निरसन करते हुए कहते हैं कि जो मांस खाता हो - चाहे न जानते हुए ही खाता हो तो भी उसको पाप लगता ही है । हम जानकर नहीं खाते, इसलिए दोष (पाप) नहीं लगता ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या है?" इससे स्पष्ट है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के साथ ही कर्मों का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । वास्तव में सामाजिक दृष्टि या लोक व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक होता है। सामाजिक न्याय में तो कर्म का बाह्य स्वरूप ही उसकी शुभाशुभता का निश्चय करता है, क्योंकि आन्तरिक वृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान सकता है, दूसरा नहीं । जैन दृष्टि एकांगी नहीं है, वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी है । वह व्यक्ति सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता का निर्णायक मानती है और समाज सापेक्ष होकर कर्मों के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करता है, उसमें द्रव्य ( बाह्य) और भाव (आंतरिक) दोनों का मूल्य है। योग (बाह्य क्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के कारण माने गये हैं, यद्यपि उसमें मनोवृत्ति ही प्रमुख कारण है । वह वृत्ति और क्रिया में विभेद नहीं मानती । उसकी समन्वयवादी दृष्टि में मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव नहीं, मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण सम्भव नहीं है । वह एक समालोचक दृष्टि से
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त