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में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति सम्भाव है वह पाप-कर्म का बन्ध नहीं करता। सूत्रकृतांग के अनुसार भी धर्म-अधर्म (शुभाशुभत्व) के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना चाहिए। सभी को जीवित रहने की इच्छा है। कोई भी मरना नहीं चाहता। सभी को अपने प्राण प्रिय हैं। सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है। इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा किसी भी प्राण का हनन नहीं हो बौद्ध दर्शन का दृष्टिकोण
बौद्ध दर्शन में भी सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि को ही कर्म के शुभत्व का आधार माना गया है। सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि जैसा मैं हूँ वैसे ही ये दूसरे प्राणी भी हैं और जैसे ये दूसरे प्राणी वैसा ही मैं हूँ, इस प्रकार सभी को अपने समान समझकर किसी की हिंसा या घात नहीं करना चाहिए 26 धम्मपद में भी यही कहा है कि सभी प्राणी दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं, सबको जीवन प्रिय है, अतः सबको अपने समान समझकर न मारे और न मारने की प्रेरणा करे। सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से जो दुःख देता है वह मरकर सुख नहीं पाता, लेकिन जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से दुःख नहीं देता वह मरकर सुख को प्राप्त होता है। हिन्दू धर्म का दृष्टिकोण
___ मनुस्मृति, महाभारत तथा गीता में भी हमें इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। गीता में कहा गया है कि जो सुख और दुःख सभी में दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखकर व्यवहार करता है वही परमयोगी है। महाभारत में अनेक स्थानों पर इस विचार का समर्थन मिलता है। उसमें कहा गया है कि जैसा अपने लिए चाहता है वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करे।" त्याग-दान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय सभी में दूसरे को अपनी आत्मा के समान मानकर व्यवहार करना चाहिए। जो व्यक्ति दूसरे [60]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त