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आक्षेप का समाधान यह है कि कोई भी कार्य अकारण नहीं हो सकता । उसका कोई न कोई कारण तो अवश्य ही मानना पड़ेगा। यदि मानवता की पीड़ा का कारण व्यक्ति नहीं है तो या तो उसका कारण ईश्वर होगा या प्रकृति । यदि इसका कारण ईश्वर है तो वह निर्दयी ही सिद्ध होगा और यदि इसका कारण प्रकृति है तो मनुष्य के सम्बन्ध में यान्त्रिकता की धारणा को स्वीकार करना होगा, लेकिन मानव व्यवहार के यान्त्रिकता के सिद्धान्त में नैतिक और जीवन में उच्च मूल्यों का कोई स्थान नहीं रहेगा। अतः मानवता की पीड़ा का कारण व्यक्ति को ही मानना होगा । समग्र मानवता की पीड़ा का कारण प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही है। जैन विचारणा में इस सम्बन्ध में सामुदायिक कर्म की धारणा को स्वीकार किया गया है, जिसका बन्धन और विपाक दोनों ही समग्र समाज के सदस्यों को एक साथ होता है । यही एक धारणा है जो इस आक्षेप का समुचित समाधान कर सकती है।
६. मेकेंजी के विचार में कर्म - सिद्धान्त यान्त्रिक रूप में कार्य करता है और कर्म के मनोवैज्ञानिक पक्ष या प्रयोजन को विचार में नहीं लेता है 164 केंजी का यह दृष्टिकोण भी भ्रान्तिपूर्ण ही है। कर्म सिद्धान्त कर्म के मनोवैज्ञानिक पक्ष का कर्ता के प्रयोजन को महत्वूपर्ण स्थान देता है। कर्म के मानसिक पक्ष के अभाव में तो बौद्ध और वैदिक विचारणाओं में कोई बन्धन ही नहीं माना गया है । यद्यपि जैन विचारणा ईर्यापथिक बन्ध के रूप में कर्म के बाह्य पक्ष को स्वीकार करती है, लेकिन उसके अनुसार भी बन्धन का प्रमुख कारण तो यही मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जैन साहित्य में तन्दुल मत्स्य की कथा स्पष्ट रूप से यह बताती है कि कर्म की बाह्य क्रियान्विति के अभाव में भी मात्र वैचारिक या मनोवैज्ञानिक पक्ष ही बन्धन सृजन कर देता है, अतः कर्म - सिद्धान्त में मनोवैज्ञानिक पक्ष या कर्म के मानसिक पहलू की उपेक्षा नहीं हुई है ।
इस प्रकार कर्म सिद्धान्त पर किये जानेवाले आक्षेप नैतिकता की दृष्टि से निर्बल ही सिद्ध होते हैं । कर्म सिद्धान्त में अनन्य आस्था रखकर ही नैतिक जीवन में आगे बढ़ा जा सकता है।
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त