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कर्म का अशुभत्व, शुभत्व
एवं शुद्धत्व
१. तीन प्रकार के कर्म
जैन दृष्टि से 'कर्माणा बध्यते जन्तुः' की उक्ति ठीक है, लेकिन जैन दर्शन में सभी कर्म अथवा क्रियाएँ समान रूप से बन्धनकारक नहीं हैं। उसमें दो प्रकार के कर्म माने गये हैं- एक को कर्म कहा गया है, दूसरे को अकर्म। समस्त साम्परायिक क्रियाएँ कर्म की कोटि में आती हैं और ईर्यापथिक क्रियाएँ अकर्म की कोटि में आती हैं। नैतिक दर्शन की दृष्टि से प्रथम प्रकार के कर्म ही नैतिकता के क्षेत्र में आते हैं और दूसरे प्रकार के कर्म नैतिकता के क्षेत्र से परे हैं। उन्हें अतिनैतिक कहा जा सकता है, लेकिन नैतिकता के क्षेत्र में आनेवाले सभी कर्म भी एक समान नहीं होते हैं। उनमें से कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं। जैन परिभाषा में इन्हें क्रमशः पुण्य-कर्म और पाप-कर्म कहा जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं- १. ईर्यापथिक कर्म (अकर्म) २. पुण्य कर्म और ३. पाप कर्म। बौद्ध दर्शन में भी तीन प्रकार के कर्म माने गये हैं- १. अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म २. कुशल या शुक्ल कर्म और ३. अकुशल या कृष्णकर्म। गीता में भी तीन प्रकार के कर्म निरूपित है- १. अकर्म, २. कर्म (कुशल कर्म) और ३. विकर्म (अकुशल कर्म)। जैन दर्शन का ईर्यापथिक कर्म, बौद्ध दर्शन का अव्यक्त या अकृष्ण
कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व
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