________________
और अदृष्ट भी कहा गया है। संचित कर्म के जिस भाग का फल भोग शुरू हो जाता है उसे ही प्रारब्ध कर्म कहते हैं। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्म के दो भाग होते हैं। जो भाग अपना फल देना प्रारम्भ कर देता है वह प्रारब्ध (आरब्ध) संचित कहलाता है शेष भाग जिसका फल भोग प्रारम्भ नहीं हुआ है अनारब्ध (संचित) कहलाता है। लोकमान्य तिलक ने 'क्रियामाण कर्म' ऐसा स्वतन्त्र अवस्था भेद नहीं माना है। वे कहते हैं कि यदि उसका पाणिनिसूत्र के अनुसार भविष्यकालिक अर्थ लेते हैं, तो उसे अनारब्ध कहा जायेगा। तुलना की दृष्टि से कर्म की अनारब्ध या संचित अवस्था ही 'सत्ता' की अवस्था कही जा सकती है। इसी प्रकार प्रारब्ध-कर्म की तुलना कर्म की उदय अवस्था से की जा सकती है। कुछ लोग नवीन कर्म संचय की दृष्टि से क्रियमाण नामक स्वतन्त्र अवस्था मानते हैं। क्रियमाण कर्म की तुलना जैन विचारणा के बन्धमान कर्म से की जा सकती है। डॉ. टांटिया संचित कर्म की तुलना कर्म की सत्ता अवस्था से, प्रारब्धकर्म की तुलना उदय कर्म से तथा क्रियमाण कर्म की तुलना बन्धमान कर्म से करते हैं। वैदिक परम्परा में कर्म की उपशमन अवस्था को मान्यता का स्पष्ट निर्देन तो नहीं मिलता, फिर भी महाभारत में पाराशरगीता में एक निर्देश है जिसमें कहा गया है कि कभी-कभी मनुष्य का पूर्वकाल में किया गया पुण्य (अपना फल देने की राह देखता हुआ) चुप बैठा रहता हैइस अवस्था की तुलना जैन विचारणा के उपशमन से की जा सकती है।
कर्म की इन विभिन्न अवस्थाओं का प्रश्न कर्मविपाक की नियतता से सम्बन्धित है। अतः इस प्रश्न पर भी थोड़ा विचार कर लेना आवश्यक है। १४. कर्म विपाक की नियतता और अनियतता जैन दृष्टिकोण
हमने ऊपर कर्मों की अवस्थाओं पर विचार करते हुए देखा कि कुछ कर्म ऐसे हैं जिनका विपाक नियत है और उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता, जो जैन विचारणा में निकाचित कर्म कहे जाते हैं। जिनका बन्ध जिस विपाक को लेकर होता है उसी विपाक के [38]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त