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अनिवार्य माना गया है। इस प्रकार वैदिक परम्परा में कर्म विपाक की नियतता और अनियतता दोनों स्वीकार की गई हैं। फिर भी उसमें संचित कर्मों की दृष्टि से नियतविपाक का विचार नहीं मिलता। सभी संचित कर्म अनियत - विपाकी मान लिए गये हैं।
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निष्कर्ष
वस्तुतः कर्म सिद्धान्त में कर्मविपाक की नियतता और अनियतता की दोनों विरोधी धारणओं के समन्वय के अभाव में नैतिक जीवन की यथार्थ व्याख्या सम्भव नहीं होती है। यदि एकान्त रूप में कर्म विपाक की नियतता को स्वीकार किया जाता है तो नैतिक आचरण का चाहे निषेधात्मक कुछ मूल्य बना रहे, लेकिन उसका विधायक मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाता है । नियत भविष्य के बदलने की सामर्थ्य नैतिक जीवन में नहीं रह पाती है। दूसरे, यदि कर्मों को पूर्णतः अनियतविपाकी माना जावे तो नैतिक व्यवस्था का ही कोई अर्थ नहीं रहता है । विपाक की पूर्ण नियंतता मानने पर निर्धारणवाद और विपाक की पूर्ण अनियतता मानने पर अनिर्धारणवाद की सम्भावना होगी, लेकिन दोनों ही धारणाएँ ऐकान्तिक रूप में नैतिक जीवन की समुचित व्याख्या कर पाने में असमर्थ हैं । अतः कर्म विपाक की नियतता ही एक तर्कसंगत दृष्टिकोण है, जो नैतिक दर्शन की सम्यक् व्याख्या प्रस्तुत करता है ।
इसके पूर्व कि हम इस अध्याय को समाप्त करें हमें कर्म सिद्धान्त के सम्बन्ध में पाश्चात्य एवं भारतीय विचारकों के आक्षेपों पर भी विचार कर लेना चाहिए ।
१५. कर्म सिद्धान्त पर आक्षेप और उनका प्रत्युत्तर
कर्म सिद्धान्त को अस्वीकार करने वाले विचारकों के द्वारा कर्मसिद्धान्त के प्रतिपेध के लिए प्राचीनकाल से ही तर्क प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित' में उन विचारकों के द्वारा दिये जाने वाले कुछ तर्कों का दिग्दर्शन कराया जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
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