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है। कर्म-सिद्धान्त के विरोध में उन विचारकों का निम्न तर्क है, एक "प्रस्तरखण्ड जब प्रतिमा के रूप में निर्मित हो जाता है तब स्नान, अंगराग, माला, वस्त्र और अलंकारों से उसकी पूजा की जाती है। विचारणीय यह है कि इस प्रतिमारूप प्रस्तरखण्ड ने कौन-सा पुण्य किया था? एक अन्य प्रस्तर खण्ड जिस पर उपविष्ट होकर लोग मल-मूत्र विसर्जन करते हैं, उसने कौन-सा पाप कर्म किया था? यदि प्राणी कर्म से ही जन्म ग्रहण करते हैं और मरते हैं, फिर जल के बुदबुद जिस शुभाशुभ कर्म से उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं?"57 ___कर्म-सिद्धान्त के विरोध में दिया गया यह तर्क वस्तुतः एक भ्रान्त धारणा पर खड़ा हुआ है। कर्म-सिद्धान्त का नियम शरीरयुक्त चेतन प्राणियों पर लागू होता है, जबकि आलोचक ने अपने तर्क जड़ पदार्थों के सन्दर्भ में दिये हैं। कर्म-सिद्धान्त का नियम जड़ के लिए नहीं है। अतः जड़ जगत् के सम्बन्ध में दिये हुए तर्क उस पर कैसे लागू हो सकते हैं। यदि हम जैन दृष्टिकोण के आधार पर उन्हें जीवनयुक्त मानें तो भी वह यह आक्षेप असत्य ही सिद्ध होता है, क्योंकि जीवनयुक्त मानने पर यह भी सम्भव है कि उन्होंने पूर्व जीवन में कोई ऐसा शुभ या अशुभ कर्म किया होगा जिसका परिणाम वे प्राप्त कर रहे हैं। इस प्रकार दोनों ही दृष्टियों से यह आक्षेप समुचित प्रतीत नहीं होता। कर्म सिद्धान्त पर मेकेंजी के आक्षेप और उनका प्रत्युत्तर
पाश्चात्य आचारदर्शन के प्रमुख विद्वान् जॉन मेकेंजी ने अपनी पुस्तक हिन्दू एथिक्स में कर्म सिद्धान्त पर कुछ आक्षेप किये हैं
१. कर्म सिद्धान्त में अनेक ऐसे कर्मों को भी शुभाशुभ फल देनेवाला मान लिया गया है जिन्हें सामान्यतया नैतिक दृष्टि से अच्छा या बुरा नहीं कहा जाता है। वस्तुतः मेकेंजी का यह आक्षेप कर्म सिद्धान्त पर न होकर मात्र प्राच्य और पाश्चात्य आचारदर्शन के अन्तर को स्पष्ट करता है। पाश्चात्य विचारणा में अनेक प्रकार के धार्मिक क्रिया-कर्मों, निषेधात्मक एवं वैयक्तिक सद्गुणों- जैसे उपवास, ध्यानादि तथा पशु जगत में प्रदर्शित कर्म-सिद्धान्त
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