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द्वारा वे क्षय (निर्जरित) होते हैं अन्य किसी प्रकार से नहीं, यही कर्म विपाक की नियतता है। इसके अतिरिक्त कुछ कर्म ऐसे भी हैं, जिनका विपाक उसी रूप में अनिवार्य नहीं होता। उनके विपाक के स्वरूप, मात्रा, समयावधि एवं तीव्रता आदि में परिवर्तन किया जा सकता है, जिन्हें हम अनिकाचित कर्म के रूप में जानते हैं।
जैन विचारणा कर्म विपाक की नियतता और अनियतता दोनों को ही स्वीकार करती है और बताती है कि कर्मों के पीछे रही हुई कषायों की तीव्रता एवं अल्पता के आधार पर ही क्रमशः नियत विपाकों एवं अनियत विपाकी कर्मों का बन्ध होता है। जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे तीव्र कषाय (वासनाएँ) होती हैं, उनका बन्ध भी अति प्रगाढ़ होता है और उसका विपाक भी नियत होता है। इसके विपरीत जिन कर्मों से सम्पादन के पीछे कषाय अल्प होती है उनका बन्ध शिथिल होता है, और इसीलिए उनका विपाक भी अनियत होता है। जैन कर्म सिद्धान्त की संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तता, उदोरणा एवं उपशमन की अवस्थाएँ कर्मों के अनियत विपाक की ओर संकेत करती हैं, लेकिन जैन विचारणा सभी कर्मों को अनियतविपाकी नहीं मानती। जिन कर्मों का बन्ध तीव्र कषाय भावों के फलस्वरूप होता है उन्हें वह नियतविपाकी कर्म मानती है । वैयक्तिक दृष्टि से सभी आत्माओं में कर्मविपाक में परिवर्तन करने की क्षमता नहीं होती । जब व्यक्ति एक आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँच जाता है, तभी उसमें कर्म विपाक को अनियत बनाने की शक्ति उत्पन्न होती है । फिर भी स्मरण रखना चाहिए व्यक्ति कितनी ही आध्यात्मिक ऊँचाई पर स्थित हो, वह मात्र उन्हीं कर्मों का विपाक अनियत बना सकता है, जिनका बन्ध अनियतविपाकी कर्म के रूप में हुआ है। जिन कर्मों का बन्ध नियतविपाकी कर्मों के रूप में हुआ है उनका भोग अनिवार्य है। इस प्रकार जैनविचारणा कर्मों के नियतता और अनियतता के दोनों पक्षों को स्वीकार करती है और इस आधार पर अपने कर्म सिद्धान्त को नियतिवाद और यदृच्छावाद के दोषों से बचा लेती है।
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कर्म-सिद्धान्त
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