________________
१. बन्ध- कषाय एवं योग के फलस्वरूप कर्म परमाणुओं का आत्म प्रदेशों से जो सम्बन्ध होता है, उसे जैन दर्शन में बन्ध कहा जाता है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा एक स्वतन्त्र अध्याय में की गई है।
२. संक्रमण- एक कर्म के अनेक अवान्तर भेद हैं और जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार कर्म का एक भेद अपने सजातीय दूसरे भेद में बदल सकता है। यह अवान्तर कर्म-प्रकृतियों का अदल-बदल संक्रमण कहलाता है। संक्रमण वह प्रक्रिया है जिसमें आत्मा पूर्व-बद्ध कर्मों की अवान्तर प्रकृतियों, समयावधि, तीव्रता एवं परिमाण (मात्रा) को परिवर्तित करता है। संक्रमण में आत्मा पूर्वबद्ध कर्म-प्रकृति का, नवीन कर्म-प्रकृति का बन्ध करते समय मिलाकर तत्पश्चात् नवीन कर्म-प्रकृति में उसका रूपान्तरण कर सकता है। उदाहरणार्थ, पूर्व में बद्ध दुःखद संवेदन रूप असातावेदनीय कर्म का नवीन सातावेदनीय कर्म का बन्ध करते समय ही सातावेदनीय कर्म-प्रकृति के साथ मिलाकर उसका सातावेदनीय कर्म में संक्रमण किया जा सकता है। यद्यपि दर्शनमोह कर्म की तीन प्रकृतियों मिथ्यात्वमोह, सम्यक्त्वमोह और मिश्रमोह में नवीन बन्ध के अभाव में भी संक्रमण सम्भव होता है, क्योंकि सम्यक्त्वमोह एवं मिश्रमोह का बन्ध नहीं होता है। वे अवस्थाएँ मिथ्यात्वमोह कर्म के शुद्धीकरण से होती हैं। संक्रमण कर्मों के अवान्तर भेदों में ही होता है, मूल भेदों में नहीं होता है, अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म का आयुकर्म में संक्रमण नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कुछ अवान्तर कर्म ऐसे हैं जिनका रूपान्तर नहीं किया जा सकता। जैसे दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय कर्म का रूपान्तर नहीं होता। इसी प्रकार कोई नरकायु के बन्ध को मनुष्य आयु के बन्ध में नहीं बदल सकता। नैतिक दृष्टि में संक्रमण की धारणा की दो महत्वपूर्ण बातें हैंएक तो यह है कि संक्रमण की क्षमता केवल आत्मा की पवित्रता के साथ ही बढ़ती जाती है। जो आत्मा जितना पवित्र होता है उतनी ही उसकी आत्मशक्ति प्रकट होती है और उतनी उसमें कर्म-संक्रमण की क्षमता भी
[34]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त