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कर्म सिद्धान्त के मूल पर ही कुठाराघात होता है, क्योंकि कर्म सिद्धान्त में वैयक्तिक विविध अनुभूतियों का कारण व्यक्ति के अन्दर ही माना जाता है, जबकि फल संविभाग के आधार पर हमें बाह्य कारण को स्वीकार करना होता है।
जैन कर्म-सिद्धान्त में फल संविभाग का अर्थ समझने के लिए हमें उपादान कारण (आन्तरिक कारण) और निमित्त कारण (बाह्य कारण) का भेद समझना होगा। जैन कर्म सिद्धान्त मानता है कि विविध सुखददुःखद अनुभूतियों का मूल कारण (उपादान कारण) तो व्यक्ति के अपने ही पूर्व कर्म हैं। दूसरा व्यक्ति तो मात्र निमित्त बन सकता है। अर्थात् उपादान कारण की दृष्टि से सुख-दुःखादि अनुभव स्वकृत है और निमित्तकारण की दृष्टि से परकृत है। गीता भी यह दृष्टिकोण अपनाती है। गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यह लोग तो अपनी ही मौत मरेंगे, तू तो मात्र निमित्त होगा, लेकिन यहाँ यह प्रश्न उठता है यदि दूसरों का हिताहित करने में मात्र निमित्त होते हैं तो फिर हमें पापपुण्य का भागी क्यों माना जाता है? जैन विचारकों ने इस प्रश्न का समाधान खोजा है। उसका कहना है कि हमारे पुण्य-पाप दूसरे के हिताहित की क्रिया पर निर्भर न होकर हमारी मनोवृत्ति पर निर्भर हैं। हम दूसरों का हिताहित करने पर उत्तरदायी इसलिए हैं कि वह कर्म एवं कर्म संकल्प हमारा है। दूसरों के प्रति हमारा जो दृष्टिकोण है, वही हमें उत्तरादायी बनाता है। उसी के आधार पर व्यक्ति कर्म के बन्ध करता है और उसका फल भोगता है। १३. जैन दर्शन में कर्म की अवस्था
जैन दर्शन में कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं पर गहराई से विचार हुआ है। प्रमुख रूप से कर्मों की दस अवस्थाएँ मानी गयी हैं- १. बन्ध, २. संक्रमण, ३. उत्कर्षण, ४. अपवर्तन, ५. सत्ता, ६. उदय, ७. उदीरणा, ८. उपशमन, ९. निधत्ति और १०. निकाचना।
कर्म-सिद्धान्त
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