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कि सामान्य नियम यह है कि कर्म स्वकीय है, जो कर्म करता है वही (सन्तानप्रवाह की अपेक्षा से) उसका फल भोगता है, किन्तु पालीनिकाय में भी पुण्य परिणामना (पत्तिदान) है। वह यह भी मानते हैं कि मृत की सहायता हो सकती है। स्थाविरवादी प्रेत और देवों को दक्षिणा देते हैं अर्थात् भिक्षुकों को दिये हुए दान (दक्षिणा) से जो पुण्य संचित होता है, उसको देते हैं। बौद्धों के अनुसार हम अपने पुण्य में दूसरों को सम्मिलित कर सकते हैं, पाप में नहीं हिन्दूओं के समान ही बौद्ध भी प्रेतयोनि में विश्वास करते हैं और प्रेत के निमित्त जो भी दानपुण्य आदि किया जाता है उसका फल प्रेत को मिलता है, यह मानते हैं। बौद्ध यह भी मानते हैं कि यदि प्राणी मरकर परदत्तोपजीवी प्रेतावस्था में जन्म लेता है, तब तो उसे यहाँ उसके निमित्त किया जानेवाला पुण्य कर्म का फल मिलता है, लेकिन यदि वह मरकर मनुष्य, नारक, तिर्यच या देव योनि में उत्पन्न होता है तो पुण्यकर्म करने वाले को ही उसका फल मिलता है। इस प्रकार बौद्ध विचारणा कुशल कर्मों के फल संविभाग को स्वीकार करती है। गीता एवं हिन्दू परम्परा का दृष्टिकोण
गीता कर्म फल संविभाग में विश्वास करती है, ऐसा कहा जा सकता है। गीता में श्राद्ध तर्पण आदि क्रियाओं के अभाव में तथा कुलधर्म के विनष्ट होने से पितर का पतन हो जाता है, यह दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि संतानादि द्वारा किये गये शुभाशुभ कृत्यों का प्रभाव उनके पितरों का पड़ता है। महाभारत में यह बात भी स्वीकार की गई है कि न केवल सन्तान के कृत्यों का प्रभाव पूर्वजों पर पड़ता है वरन् पूर्वजों के शुभाशुभ कृत्यों का फल भी सन्तान को प्राप्त होता है। शान्ति पर्व में भीष्म, युधिष्टिर से कहते हैं, हे राजन् चाहे किसी आदमी को उसके पाप कर्मों का फल उस समय मिलता हुआ न दीख पड़े, तथापि वह उसे ही नहीं किन्तु उसके पुत्रों, पोत्रों और प्रपौत्रों तक को भोगना पड़ता है। इसी सन्दर्भ में मनुस्मृति (४/ १७३) एवं महाभारत (आदिपर्व,
कर्म-सिद्धान्त
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