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सकता है कि क्रोधादि कषाय, जो आत्मा के बन्धन की स्थितियाँ हैं, वे आत्मा के ही गुण हैं और इसलिए आत्मा के गुणों (चैत्तसिक दशाओं) को आत्मा के बन्धन का कारण मानने में कोई कठिनाई नहीं आती है । लेकिन इस सम्बन्ध में जैन विचारकों का उत्तर यह होगा कि क्रोधादि कषाय अवस्थाएँ बन्ध की प्रकृतियाँ हैं, क्रोधादि कषाय अवस्था में होना तो स्वतः ही आत्मा का बन्धन है, वे बन्धन की उपाधि ( निमित्तकरण) नहीं हो सकती । कषाय बन्धन का सृजन करती है, लेकिन उनकी उपाधि (Condition) तो अनिवार्यतया उनसे भिन्न होनी चाहिए, क्योंकि कषाय आदि आत्मा की वैभाविक अवस्थाएँ हैं, इसलिए उनका कारक या उपाधि ( निमित्त) आत्मा के गुणों से भिन्न होना चाहिए और इस प्रकार कषाय और बन्धन की उपाधि या निमित्तकरण अनिवार्य रूप से भौतिक होना चाहिए। यदि बन्धन का कारण आन्तरिक और चैत्तसिक ही है और किसी बाह्य तत्त्व से प्रभावित नहीं होता तो फिर उससे मुक्ति का क्या अर्थ होगा । 34 जैन मत के अनुसार यदि बन्धन और बन्धन का कारण दोनों ही समान प्रकृति के हैं तो उपादान और निमित्त कारण का अन्तर ही समाप्त हो जावेगा । यदि कषाय आत्मा में स्वतः ही उत्पन्न हो जाते हैं तो वे उसका स्वभाव ही होंगे और यदि वे आत्मा का स्वभाव है तो उन्हें छोड़ा नहीं जा सकेगा और यदि उन्हें छोड़ना सम्भव नहीं तो मुक्ति भी सम्भव नहीं होगी। दूसरे जो स्वभाव हैड्ड वह आन्तरिक एवं स्वत: हैं और यदि स्वभाव में स्वतः बिना किसी बाह्य निमित्त के ही विकार आ सकता है, तो फिर बन्धन में आने की सम्भावना सदैव बनी रहेगी और मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा। यदि पानी में स्वतः ही उष्णता उत्पन्न हो जावे तो शीतलता उसका स्वभाव नहीं हो सकता। आत्मा में भी यदि मनोविकार स्वतः ही उत्पन्न हो सके तो वह निर्विकार नहीं रह सकता। जैन दर्शन यह मानता है कि उष्णता के संयोग से जिस प्रकार पानी स्वगुण शीतलता को छोड़ विकारी हो जाता है, वैसे ही आत्मा जड़ कर्म - परमाणुओं के संयोग से ही विकारी बनता है । कषायादि भाव आत्मा की विभावावस्था के सूचक
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त