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हैं। मनोवृत्तियों, कषायों अथवा भावों की उत्पत्ति स्वतः नहीं हो सकती, उसका भी कारण अपेक्षित है। सभी भाव जिस निमित्त की अपेक्षा करते हैं, वही द्रव्य कर्म है। इसी प्रकार जब तक आत्मा में कषायों (मनोविकार) अथवा भाव कर्म की उपस्थित नहीं हो, तब तक कर्म परमाणु जीव के लिए कर्मरूप में (बन्धन के रूप में) परिणत नहीं हो सकते। इस प्रकार कर्म के दोनों पक्ष अपेक्षित हैं। द्रव्य कर्म और भाव कर्म का सम्बन्ध
पं. सुखलालजी लिखते हैं कि भाव-कर्म के होने में द्रव्य-कर्म निमित्त है और द्रव्य-कर्म में भाव-कर्म निमित्त, दोनों का आपस में बीजांकुर की तरह कार्य-कारणभाव सम्बन्ध है। इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म के चेतन और जड़ दोनों पक्षों में बीजांकुरवत् पारस्परिक कार्यकारणभाव माना गया है। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज बनता है और उसमें किसी को भी पूर्वापर नहीं कहा जा सकता, वैसे ही द्रव्यकर्म
और भावकर्म में भी किसी पूर्वापरता का निश्चय नहीं किया जा सकता। यद्यपि प्रत्येक द्रव्यकर्म की अपेक्षा से उसका भावकर्म पूर्व होगा और प्रत्येक भावकर्म के लिए उसका द्रव्यकर्म पूर्व होगा। वस्तुतः इसमें सन्तति अपेक्षा से अनादि कार्य-कारण भाव है। उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते हैं कि भाव कर्म के होने के पूर्वबद्ध द्रव्य-कर्म निमित्त है और वर्तमान में बध्यमान द्रव्यकर्म निमित्त है। दोनों में निमित्त नैमित्तिक रूप कार्यकरण सम्बन्ध है। (अ) बौद्ध दृष्टिकोण एवं उसकी समीक्षा __यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि कर्मों के भौतिक पक्ष को क्यों स्वीकार करें? बौद्ध दर्शन कर्म के चैत्तसिक पक्ष को ही स्वीकार करता है और यह मानता है कि बन्धन के कारण अविद्या, वासना, तृष्णादि चैत्तसिक तत्व ही हैं। डॉ. टांटिया इस सन्दर्भ में जैन मत की समुचितता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि यह तर्क दिया जा कर्म-सिद्धान्त
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