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चूँकि मुक्तावस्था में आत्मा अशरीरी होता है, अतः उस अवस्था में कर्म परमाणुओं की उपस्थिति में भी उसे बन्धन में आने की कोई सम्भावना नहीं रहती। ११. कर्म और विपाक की परम्परा
राग द्वेष आदि की शुभाशुभ वृत्तियाँ ही भावकर्म के रूप में आत्मा की अवस्था विशेष है। भावकर्म की उपस्थिति में ही द्रव्य-कर्म आत्मा के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। भावकर्म के निमित्त से द्रव्यकर्म का आस्रव होता रहता है और यही द्रव्यकर्म समयविशेष में भावकर्म का कारण बन जाता है। इस प्रकार कर्म-प्रवाह चलता रहता है। कर्म-प्रवाह ही संसार है। कर्म और विपाक की परम्परा से यह संसारचक्र प्रवर्तित होता रहता है। भगवान बुद्ध कहते हैं कि कर्म से विपाक प्रवर्तित होते हैं और विपाक से कर्म उत्पन्न होता है। कर्म से पुनर्जन्म होता है और इस प्रकार यह संसार प्रवर्तित होता है। अतः यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कब से है अथवा कर्म और विपाक की परम्परा का प्रारम्भ कब हुआ? यदि हम इसे सादि मानते हैं तो यह मानना पड़ेगा कि किसी काल विशेष में आत्माबद्ध हुआ, उसके पहले मुक्त था, फिर उसे बन्धन में आने का क्या कारण? यदि मुक्तात्मा को बन्धन में आने की सम्भावना मानी जाये तो मुक्ति का मूल्य अधिक नहीं रह जाता। दूसरी ओर यदि इसे अनादि माना जाये तो जो अनादि है वह अनन्त भी होगा और इस अवस्था में मुक्ति की कोई सम्भावना नहीं रह जायेगी। जैन दृष्टिकोण
जैन दार्शनिकों ने समस्या के समाधान के लिए एक सापेक्ष उत्तर दिया है। उनका कहना कि कर्मपरम्परा कर्मविशेष की अपेक्षा से सादि
और सान्त है और प्रवाह की दृष्टि से अनादि-अनन्त है। कर्मपरम्परा का प्रवाह भी व्यक्ति विशेष की दृष्टि से अनादि तो है लेकिन अनन्त नहीं है। उसे अनन्त नहीं मानने का कारण यह है कि कर्म विशेष के रूप में तो [28]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त