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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन ८१ चूर्णिकार ने कालिकत को चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत गिना है और दृष्टिवाद को द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत माना है।"
द्वादशाङ्गी में मुख्य रूप से द्रव्यानुयोग का वर्णन दृष्टिवाद में हुआ है । अन्य एकादश अंगों में द्रव्यानुयोग का वर्णन गौण रूप से हुआ है । एतदर्थ ही मुख्यता को लक्ष्य में रखकर चूर्णिकार ने सूत्रकृताङ्ग को चरणकरणानुयोग माना है । वृत्तिकार अभयदेव ने मुख्य रूप से इसमें द्रव्यानुयोग का वर्णन होने से इसे द्रव्यानुयोग माना है। इस प्रकार चूर्णिकार और वृत्तिकार ने जो वर्गीकरण किया है वह सापेक्ष है । दृष्टिवाद में भी गौण रूप से चरणकरणानुयोग आदि अनुयोगों का प्रतिपादन हुआ है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध
प्रथम श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन समय है। उसमें पर समय का परिचय प्रदान कर, उसका निरसन किया गया है। यहाँ पर परिग्रह को बन्ध और हिंसा को वैरवृत्ति का कारण बताते हुए पर वादियों का परिचय दिया है। इसमें भूतवाद, आत्माद्वैतवाद, एकात्मवाद, देहात्मवाद, अकारकवाद (सांख्यवाद ), आत्मसृष्टिवाद, पंचस्कन्धवाद, क्रियावाद, कर्तृत्ववाद,
शिकवाद आदि का परिचय प्रदान कर इन सबका निरसन किया है ।
द्वितीय अध्ययन वैतालिक में पारिवारिक मोह से निवृत्ति, परीषहजय, कषायजय आदि का उपदेश दिया गया है और सूर्यास्त के पश्चात् साधक को विहार करने का निषेध किया है तथा काम, मोह से निवृत्त होकर आत्मभाव में रमण करने का उपदेश प्रदान किया है।
तीसरे उपसर्ग अध्ययन में अनुकूल व प्रतिकूल परीषह का वर्णन कर प्रतिकूल परीषह की अपेक्षा अनुकूल परीषह अधिक भयावह है यह बताया गया है। साथ ही उस युग की विभिन्न मान्यताओं का परिचय देकर कहा है कि कितने ही साधक जल से, कितने ही आहार ग्रहण करने से, कितने ही आहार न करने से मुक्ति मानते हैं। आसिल द्विपायन आदि ऋषि पानी । अध्ययन के ग्रहण करने व वनस्पति का आहार करने से सिद्धि मानते अन्त में ग्लान सेवा व उपसर्ग सहन करने पर बल दिया है।
१ कालियसुयं चरणकरणाणुओगो, इसिमासिओत्तरज्झयणाणि धम्माणुओगो, सूरपण्णत्तादि गणिताणुओगो, दिट्टिवाओ दब्बाणुजोगो ति ।
- सूत्रकृतांग चूणि, पृ० ५