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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४७५
वासुदेव, आदि की शुभ और अशुभ कर्म प्रकृतियाँ, तीर्थंकर की भाषा का विभिन्न भाषाओं में परिणमन, आपण गृह, रथ्यामुख, श्रृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर, अन्तरापण, आदि पदों पर प्रकाश डाला गया है। और उन स्थानों पर बने हुए उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों को जिन दोषों के लगने की संभावना है उनकी चर्चा की गई है ।
भाष्यकार ने द्रव्य ग्राम के बारह प्रकार बताये हैं । वे ये हैं- ( १ ) उत्तान कमल्लक, (२) अवाङ, मुखमल्लक, (३) सम्पुटमल्लक, (४) उत्तानकखण्डमल्लक, (५) अवाङ, मुखखण्डमल्लक, (६) सम्पुटखण्डमल्लक, (७) भिति (८) पडालि, ( 8 ) वलभि, (१०) अक्षाटक (११) रुचक, (१२) काश्यपक 1
तीर्थंकर गणधर और केवली के समय ही जिनकल्पिक मुनि होते हैं। जनकल्पिक मुनि की सामाचारी का वर्णन सत्ताइस द्वारों से किया है - ( १ ) श्रुत (२) संहनन (३) उपसर्ग, (४) आतंक, (५) वेदना, (६) कतिजन, (७) स्थंडिल, (८) वसति, (8) कियच्चिर, (१०) उच्चार, (११) प्रस्रवण, (१२) अवकाश (१३) तृणफलक, (१४) संरक्षणता, (१५) संस्थापनता, (१६) प्राभृतिका, (१७) अग्नि, (१८) दीप, (१९) अवधान, (२०) वत्स्यथ, (२१) भिक्षाचर्या, (२२) पानक (२३) लेपालेप, (२४) अलेप, (२५) आचाम्ल (२६) प्रतिमा, (२७) मासकल्प जिनकल्पिक की स्थिति पर चिन्तन करते हुए - क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुण्डापना, प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म और भक्त इन द्वारों से प्रकाश डाला है । इसके पश्चात् परिहारविशुद्धिक और यथालन्दिक कल्प का स्वरूप बताया है।
स्थविरकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षा, अर्थग्रहण, अनियतवास और निष्पत्ति ये सभी जिनकल्पिक के समान हैं ।
श्रमणों के विहार पर प्रकाश डालते हुए बिहार का समय, विहार करने से पहले गच्छ के निवास एवं निर्वाह योग्य क्षेत्र का परीक्षण, उत्सर्ग और अपवाद की दृष्टि से योग्य या अयोग्य क्षेत्र, प्रत्युपेक्षकों का निर्वाचन, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए किस प्रकार गमनागमन करना चाहिए, विहारमार्ग एवं स्थंडिल भूमि, जल, विश्रामस्थान, भिक्षा, वसति, उपद्रव आदि की परीक्षा, प्रतिलेखनीय क्षेत्र में प्रवेश करने की विधि, भिक्षा से वहाँ के मानवों के अन्तर्मानस की परीक्षा, भिक्षा, औषध आदि की प्राप्ति में सरलता