Book Title: Jain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 721
________________ ६६२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट स्वरूप का जो संवेदन होता है, वह केवलदर्शन है; अथवा आवरण का पूर्णयता क्षय हो जाने पर जो बिना किसी अन्य की सहायता से समस्त "मूर्त, अमूर्त द्रव्यों को सामान्य से जानता है, वह केवलदर्शन है। केवलिसमुद्घात--आयु कर्म की स्थिति अल्प और वेदनीय की स्थिति अधिक होने पर उसे अनाभोगपूर्वक अर्थात् बिना उपयोग के आयु के समान करने के लिए केवली भगवान के आत्म-प्रदेश मूल शरीर से बाहर निकलते हैं वह केवलिसमुद्घात है। क्रिया--क्रिया नाम गति का है। जो प्रयोग गति, विरसा गति और मिश्रिका गति के भेद से तीन प्रकार की है। क्रियावादी-कर्ता के बिना क्रिया संभव नहीं है। एतदर्थ उसका समवाय आत्मा में है ; ऐसा कहने वाले क्रियावादी हैं । इसी उपाय से वे आत्मा आदि के अस्तित्व को जानते हैं। क्रोध-मोहनीय कर्म के उदय से जो अप्रीति रूप द्वषमय परिणाम उत्पन्न होता है, वह क्रोध है । समभाव को विस्मृत होकर आक्रोश में भर जाना, दूसरों पर रोष करना क्रोध है। क्षपकश्रेणी----मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ आत्मा जिस श्रेणी--अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्य सम्पराय और क्षीणमोह इन चार गुणस्थानों रूप नसैनी सोपान--पर आरूढ होता है, वह क्षपकश्रेणी है। क्षमा-क्रोध की उत्पत्ति के निमित्तभूत बाह्य कारण के प्रत्यक्ष में होने पर भी किञ्चित् मात्र भी क्रोध न करना क्षमा है। क्षय-कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति अर्थात् पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना क्षय है। क्षयोपशम---वर्तमान काल में सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और आगामी काल की दृष्टि से उन्हीं का सअवस्था रूप उपशम व देशधाति स्पर्द्धकों का उदय क्षयोपशम है। अर्थात् कर्म के उदयावली में प्रविष्ट मन्द रस स्पर्द्धक का क्षय और अनुदयमान रस स्पर्द्धक की सर्वघातिनी विपाक शक्ति का निरोध या देशवाति रूप में परिणमन व तीव्र शक्ति का मन्द शक्ति में परिणमन (उपशमन) क्षयोपशम है। क्षयोपशम सम्यक्त्व-जो मिथ्यात्व उदय को प्राप्त हुआ है उसे क्षीण करना और जो उदय को अप्राप्त है उसे उपशान्त करना । इस प्रकार क्षय के साथ उपशम रूप मिश्र अवस्था को प्राप्त होना, क्षयोपशम है। इस प्रकार के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले तत्त्वार्थ श्रद्धान को क्षयोपशम सम्यक्त्व कहा है। सायिक सम्यक्त्व-अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व; इन सात प्रकृतियों के अत्यन्त क्षय से जो सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है वह क्षायिक सम्यक्त्व है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि-वेदक सम्यग्दृष्टि होकर, प्रशम-संबेद आदि से सहित होते हुए जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के प्रभाव से जिसकी भावनाएँ वृद्धिगत हई हैं

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