Book Title: Jain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 728
________________ पारिभाषिक शब्द कोश ६६६ निकाचित-उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा इन चार अवस्थाओं के न होने की स्थिति का नाम निकाचन है। कर्म के जिस प्रदेशपिण्ड का न अपकर्षण हो सकता है, और न उत्कर्षण हो सकता है और न अन्य प्रकृति रूप संक्रमण ही हो सकता है और न उदीरणा ही हो सकती है, वह निकाचित है। दूसरे शब्दों में कहें तो जैसे लोहे की शलाकाओं को एकत्रित करने पर वे परस्पर बद्ध कही जाती हैं, फिर उन्हीं को अग्नि में डालकर ताड़ित करने पर अन्तर के स्पष्ट रहते हुए स्पृष्ट कहा जाता है, उसके पश्चात् उन्हीं को जब बार-बार, तपा कर घन से खूब ताड़ित करते हैं, तब अन्तर से रहित होकर वे एक पिण्ड बन जाती हैं । इसी तरह कर्म भी क्रम से आत्मप्रदेशों से बद्ध व स्पृष्ट होते हुए निकाचित अवस्था को प्राप्त होते हैं । निक्षेप - लक्षण और विधान (भेद ) पूर्वक विस्तार से जीवादि तत्वों के जानने के लिए जो न्यास से विरचना करना, वह निक्षेप है । निगोद -- जो अनन्तानन्त जीवों को आश्रय देता है, वह निगोद है । निगोद जीव-जिन अनन्तानन्त जीवों का साधारण रूप से एक ही शरीर होता है, वे निगोद जीव हैं । निदान - भोगाकांक्षा से व्याकुल हुआ प्राणी भविष्य में विषय-सुख की प्राप्ति के लिए तीव्र भावों से कर्मबंध करता है, वह निदान कहलाता है । निद्रा जिस शयन में सुखपूर्वक जागरण होता है उसका नाम निद्रा है । निधत्त जो कर्म का प्रदेशपिण्ड न तो उदय में दिया जा सके और न अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त भी किया जा सके वह निधत्त या निधत्ति है । नियतिवाद - जो जिस समय में, जिसके द्वारा होता है वह उस समय उसी के द्वारा उसी प्रकार से होगा ही, इस प्रकार की मान्यता नियतिवाद है । निर्जरा - आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिले हुए कर्म पुद्गलों का एकदेश क्षय होना निर्जरा है । निर्युक्ति- 'नि' का अर्थ 'निश्वय' या 'अधिकता' है तथा 'युक्त' का अर्थ 'सम्बद्ध' है तदनुसार जो जीवाजीवादि तत्व सूत्र में निश्चय से या अधिकता से प्रथम ही सम्बद्ध हैं, उन निर्युक्त तत्वों की जिसके द्वारा व्याख्या की जाती है वह नियुक्ति है। निर्वाण -- जहाँ राग-द्वेष से संतप्त प्राणी शीतलता को प्राप्त करते हैं वह निर्वाण है । अथवा संपूर्ण कर्म बंधनों से मुक्त अवस्था निर्माण है । निर्वाणपथ - जो अरिहन्तों द्वारा सम्यक् प्रकार से देखा गया है, ज्ञान के माध्यम से यथावस्थित जाना गया है, जो चरण और करण से आधारित है; वह मोक्ष-पथ या निर्वाण पथ है । र्वाणनिसुख- सांसारिक सुख का अतिक्रमण करके जो आत्यन्तिक, अविनश्वर, अनुपम, नित्य और निरतिशय सुख है, वह निर्वाणसुख है । निविकृति - जिस गोरस, मधुररस, फलरस व स्निग्धरस से जिल्ह्वा एवं मन विकार को प्राप्त होते हैं, वह विकृति है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जिसके साथ

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