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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
दाता, घर, तर ये पाँच प्रकार हैं। शय्या और संस्तारक का अन्तर बताते हुए कहा है कि शय्या पूरे शरीर के बराबर होती है और संस्तारक ढाई हाथ लम्बा होता है। उसके भी भेद-प्रभेद का विस्तार से वर्णन है।
" उपधि का विवेचन करते हुए उसके अवधियुक्त और उपगृहीत ये दो प्रकार बताये हैं। जिनकल्पिकों के बारह प्रकार की, स्थविरकल्पिकों के लिए चौदह प्रकार की और साध्वियों के लिए पच्चीस प्रकार की उपधि अवधि युक्त है। जिनकल्पिक पाणिपात्रभोजी और प्रतिग्रहधारी ये दो प्रकार के होते हैं। उनके भी पुनः सवस्त्र और निर्वस्त्र ये दो प्रकार हैं। जिनकल्पिक की उपधि की आठ कोटियाँ हैं। उनके दो, तीन, चार, पाँच, नो, दस, ग्यारह, बारह ये भेद हैं । निर्वस्त्र पाणिपात्र की जघन्य उपधि रजोहरण और मुखवस्त्रिका ये दो होती हैं। यदि पाणिपात्र सवस्त्र है और एक कपड़ा ग्रहण करता है तो उसकी तीन प्रकार की है।
तृतीय उद्देशक में भिक्षा ग्रहण में लगने वाले दोषों और उनकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। अन्य दोषों के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है। चतुर्थ उद्देशक में अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग, कायोत्सर्ग के विविध प्रकार, सामाचारी, निर्ग्रन्थी के स्थान पर श्रमण का प्रवेश, राजा, अमात्य, श्रेष्ठ, पुरोहित, सार्थवाह, ग्राममहत्तर, राष्ट्रमहत्तर, गणधर के लक्षण, ग्लानश्रमणी की सेवा, संरंभ, समारंभ और आरम्भ के भेद-प्रभेद, हास्य और उसके उत्पन्न होने के विविध कारणों का वर्णन है।
पंचम उद्देशक में प्राभृतिक शय्या, छादन आदि भेद, सपरिकर्म शय्या, उसके चौदह प्रकारों का वर्णन है। जैन श्रमणों में परस्पर आहार आदि का जो व्यवहार होता है वह जैन पारिभाषिक शब्द में संभोग कहलाता है और उस सम्बन्ध को सांभोगिक सम्बन्ध कहते हैं। चूर्णिकार ने सांभोगिक सम्बन्ध को समझाने के लिए कुछ ऐतिहासिक आख्यान दिये हैं यथा-भगवान महावीर, उनके शिष्य सुधर्मा, उनके जम्बू, उनके प्रभव, उनके शय्यंभव, उनके यशोभद्र, उनके संभूत, उनके स्थूलभद्र, स्थूलभद्र के आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती ये दो युगप्रधान शिष्य हुए। चन्द्रगुप्त का पुत्र बिन्दुसार, उसका अशोक और उसका पुत्र कुणाल हुआ।
. छठे उद्देशक में गुरु चातुर्मासिक का वर्णन है । इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय मैथुन सम्बन्धी दोष और प्रायश्चित्त है। सप्तम उद्देशक विकृत आहार, कुण्डल, गुण, मणि, तुडिय, तिसरिय, वालंभा, पलंबा, हार, अर्धहार,