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४४४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा चातुर्मासिक में पांच सौ और सांवत्सरिक में एक हजार आठ उच्छवासों का कायोत्सर्ग करना चाहिए। इसी तरह नियत कायोत्सर्ग में 'लोगस्सुज्जोयगरे' के पाठ की संख्या के सम्बन्ध में लिखा है कि देवसिक कायोत्सर्ग में चार, रात्रिक में दो, पाक्षिक में बारह, चातुर्मासिक में बीस और साम्वत्सरिक में चालीस लोगस्स का पास करना चाहिए। श्रमण को अपनी सामर्थ्य के अनुसार कायोत्सर्ग करना चाहिए। यदि शक्ति से अधिक समय तक कायोत्सर्ग किया जायेगा तो अनेक प्रकार के दोष समुत्पन्न हो सकते हैं । कायोत्सर्ग के समय कपटपूर्वक निद्रा लेना, सूत्र और अर्थ की प्रतिपृच्छा करना, काँटा निकालना और लघुशंका आदि करने के लिए चले जाना उचित नहीं है। इससे उस कार्य के प्रति उपेक्षा प्रगट होती है। कायोत्सर्ग के घोटकदोष, लतादोष प्रभृति उन्नीस दोष बताये हैं। जो वासी और चन्दन दोनों को समान समझता है, जीने और मरने में जो समबुद्धि है और देह की बुद्धि से परे है वही व्यक्ति कायोत्सर्ग का सच्चा अधिकारी है। .
आवश्यक का छठा अध्ययन प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान, प्रत्याख्याता, प्रत्याख्येय, पर्षद, कथनविधि और फल इन छह दृष्टियों से प्रत्याख्यान का विवेचन किया गया है।
प्रत्याख्यान के नाम, स्थापना, द्रव्य, अदित्सा, प्रतिषेध और भाव ये छह प्रकार हैं। प्रत्याख्यान की विशुद्धि श्रद्धा, ज्ञान, विनय, अनुभाषणा, अनुपालना और भाव इन छह प्रकार से होती है। प्रत्याख्यान से आस्रव का निरुन्धन होता है। समता की सरिता में अवगाहन किया जाता है। चारित्र की आराधना करने से कर्मों की निर्जरा होती है, अपूर्वकरण कर क्षपकथेणि से केवलज्ञान प्राप्त होता है और अन्त में मोक्ष का अव्याबाध सुख प्राप्त होता है।
प्रत्याख्यान द्रव्य और भाव रूप से दो प्रकार का है। द्रव्यप्रत्याख्यान
आव०नि० गा १५२४-२५ आवश्यकनियुक्ति गा० १५२६ नोट-स्थानकवासी जैन परम्परा में विभिन्न परम्पराएँ थीं अतः संगठन की दृष्टि से देवसिक रात्रिक चार, पाक्षिक आठ, चातुर्मासिक बारह और साम्वत्सरिक बीस लोगस्स की परम्परा अजमेर बृहदसाधु सम्मेलन में प्रारम्भ की जो आज प्रचलित है।
--लेखक