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- अंगबाह्य आगम साहित्य
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और मिलकसी वस्ती बिना
चाहिए। कौनसी-कौनसी वस्तुएँ धारण करना या न करना-इसका विधान किया गया है। दीक्षा लेते समय वस्त्रों की मर्यादा का भी वर्णन किया गया है। वर्षावास में वस्त्र लेने का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में आवश्यकता होने पर वस्त्र लेने में बाधा नहीं है और वस्त्र के विभाजन का इस सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है।
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के घरों में बैठना, सोना आदि नहीं कल्पता किन्तु रोगी, वृद्ध, तपस्वी या मूच्छित आदि विशेष कारण हों तो बैठने आदि में आपत्ति नहीं किन्तु प्रवचनादि नहीं कर सकता । एक गाथा का खड़े-खड़े अर्थ कर सकता है।
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को प्रातिहारिक वस्तुएँ उसके मालिक को बिना दिये अन्यत्र विहार करना नहीं कल्पता । यदि किसी वस्तु को कोई चुरा ले तो उसकी अन्वेषणा करनी चाहिये और मिलने पर शय्यातर को दे देनी चाहिए। यदि आवश्यकता हो तो उसकी आज्ञा होने पर उपयोग कर सकता है।
चतुर्थ उद्देशक में अब्रह्मसेवन तथा रात्रि-भोजन आदि व्रतों के सम्बन्ध में दोष लगने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।
पंडक, नपुंसक एवं वातिक प्रव्रज्या के लिए अयोग्य है। यहां तक कि उनके साथ संभोग (एक साथ भोजन-पानादि) करना भी निषिद्ध है।
अविनीत, रसलोलुपी व क्रोधी को शास्त्र पढ़ाना अनुचित है। दुष्ट, मूढ और दुविदग्ध ये तीन प्रव्रज्या और उपदेश के अनधिकारी हैं।
निर्ग्रन्थी रुग्ण अवस्था में या अन्य किसी कारण से अपने पिता, भाई, पुत्र आदि का सहारा लेकर उठती या बैठती हो और साधु के सहारे की इच्छा करे तो चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसी तरह निर्ग्रन्थ माता, पत्नी, पुत्री आदि का सहारा लेते हुए तथा साध्वी के सहारे की इच्छा करे तो उसे भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसमें चतुर्थ व्रत के खंडन की सम्भावना होने से प्रायश्चित्त का विधान किया है।
निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को कालातिक्रान्त, क्षेत्रातिकान्त अशनादि ग्रहण करना नहीं कल्पता। प्रथम पौरुषी का लाया हुआ आहार चतुर्थ पौरुषी तक रखना नहीं कल्पता। यदि भूल से रह जाय तो परठ देना चाहिए। उपयोग करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। यदि भूल से अनेषणीय, स्निग्ध, अशनादि भिक्षा में आ गया हो तो अनुपस्थापित श्रमण