________________
अंगबाह्य आगम साहित्य २४५ का सम्बन्ध न हो वह असत्यामषा है, उसके १२ भेद हैं। अन्य दृष्टि से लिंग, संख्या, काल, वचन आदि की दष्टि से भाषा के १६ प्रकार बताये हैं।
बारहवें पद में जीवों के शरीर के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। शरीर के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण ये पांच भेद किये हैं। उपनिषदों में आत्मा के पांच कोष की चर्चा है। उसमें केवल अन्नमय कोष के साथ ही औदारिक शरीर की तुलना की जा सकती है। इसके पश्चात् सांख्य आदि दर्शनों में अव्यक्त, सूक्ष्म और लिंग शरीर माना गया है। उसकी तुलना कार्मण शरीर के साथ हो सकती है।
२४ दंडकों में से किनमें कितने शरीर हैं, इस पर चिन्तन कर बतलाया गया है कि औदारिक से वैक्रिय और वैक्रिय से आहारक आदि शरीरों के प्रदेशों की संख्या अधिक होने पर भी वे अधिकाधिक सूक्ष्म हैं।
तेरहवें परिणामपद में परिणाम के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए जीव और अजीव दोनों पदार्थों के परिणाम बताये हैं। पहले जीव के भेदप्रभेद बताकर २४ दंडकों में गति, कषाय आदि दष्टि से उनके परिणामों का विचार किया गया है। फिर अजीव के परिणामों के भेद-प्रभेद बताये हैं। यहाँ परिणाम का अर्थ पर्याय अथवा भावों का परिणमन किया है।
चौदहवां कषायपद है। इसमें क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चारों कषाय २४ दंडकों में बताये हैं। क्षेत्र, वस्तु, शरीर और उपधि को लेकर सम्पूर्ण संसारी जीवों में कषाय की उत्पत्ति होती है। कषाय के अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये चार भेद बताये हैं। साथ ही आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित, उपशांत और अनुपशांत इस प्रकार के भेद भी किये हैं। आभोगनिर्वतित कषाय कारण उपस्थित होने पर होता है और बिना कारण जो कषाय होता है वह अनाभोगनिर्वतित है।
कर्मबंधन का कारण मुख्य रूप से कषाय है। तीनों कालों में आठों कर्म प्रकृतियों के चयन के स्थान और प्रकार, २४ दंडक के जीवों में कषाय
१ भगवती, १७-१ सू० ५९२ २ तैत्तिरीय उपनिषद्, भृगुवल्ली, बेलवलकर और रानाडे
-~-History of Indian Philosophy, p. 250. सांख्यकारिका ३६.४० बेलवलकर और रानाडे, History of Indian Philosophy, p. 358,430&370. मालवणिया-"गणधरवाद", प्रस्तावना, पृ० १२१-१२३ ।