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-वाकवीजासतIUII
“अन्तःकरणशुद्धित्वमिति धर्मत्वं" आपका अन्तःकरण, आपकी आत्मा परिष्कृत हो, शुद्ध हो, वहीं पर धर्म का वास होता है. बाकी अशुद्ध आत्मा में धर्म कभी रहता ही नहीं. धर्म के लिए बड़ी व्यापकता की आवश्यकता है.
ज्ञानियों ने कहा कि संकीर्णता कभी आत्मकल्याण की साधना नहीं बनती. किसी आत्मा को दुःखी करने वाला जीवन में कभी सुखी नहीं बनता. किसी को रुला कर के जगत् में कोई प्रसन्न नहीं हो सकता. किसी को मार कर के आप जिन्दा भी नहीं रह सकते. वह व्यक्ति दूसरों को नहीं मार रहा है, अपनी आत्मा को ही मार रहा है. वह दूसरी आत्माओं को दुःखी नहीं कर रहा है, अपने ही दुख को निमंत्रण दे रहा है. आध्यात्मिक परिभाषा के अन्तर्गत आप धर्म के रहस्य को समझने का प्रयास करें. यदि आप किसी आत्मा को सुखी करते हैं तो उसी के सुख में आपका सुख छिपा हुआ है. वहीं से आप सुख प्राप्त कर पाएंगे. परोपकार की मंगल कामना ही तो धर्म है.
व्यास ऋषि से जनक महाराज ने एक प्रश्न किया कि भगवान अठारह पुराण पढ़ने का मेरे पास समय नहीं है. आप इसका सार समझा दीजिए. पाप और पुण्य की परिभाषा बतला दीजिए. व्यास ऋषि ने दो शब्दों के अंदर ही पाप और पुण्य का परिचय दे दिया
"अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥" ऋषि ने कहा था कि महाराज याद रखना कि पर पीड़ा के समान जगत् में कोई पाप नहीं और परोपकार के समान जगत् में कोई पुण्य नहीं. यही अठारह पुराणों का सार है. सारे धर्मग्रन्थों का यही निष्कर्ष है. अत: जीवन को परोपकारमय होना चाहिए.
'परोपकाराय सतां विभूतयः' महान पुरुषों का जीवन परोपकार का मन्दिर होता है. आपका जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाए कि आने वाली आत्माओं को शान्ति और समाधि मिले तथा आप कष्ट सहन करके दूसरी आत्माओं को शान्ति देने वाले बनें – यही महावीर का आदर्श है. 'तू सहन कर और अनेक आत्माओं को शान्ति प्रदान कर'. - आज हमारा वर्तमान जीवन कैसा बना है, यह मंगलाचरण के अन्दर, ग्रन्थ को प्रारम्भ करते समय साधना के प्रवेश द्वार के अन्दर आपको परिचय दे दिया गया कि प्रवेश तभी मिलेगा जब आपमें इसकी योग्यता होगी, परोपकार की भावना हो, अंतःकरण को शुद्ध करने का आपका प्रयास और जीवन के अन्दर प्राणिमात्र के प्रति आपकी सद्भावना हो. नहीं तो द्वार पर ही आपको रुकना होगा. बिना नमस्कार और बिना इस प्रकार की भावना के आपको धर्मक्षेत्र के अन्दर प्रवेश नहीं मिलेगा.
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