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गुरुवाणी:
शंकर जी ने पार्वती जी को कहा, देखो प्रारब्ध नहीं, भाग्य नहीं, मैं साक्षात् शंकर, हृदय से वरदान दिया. तीनों को तीन वरदान दिए और जैसे थे, वैसे के वैसे ही रहे. कोई बदलाव नहीं हुआ. अब सम्भवतः बात समझ गए होंगे.
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आप वैष्णव देवी से ले करके रामेश्वरम् तक की यात्रा कर आएं, पर प्रारब्ध हो तो मिलेगा. किसी देवता को यह एकाधिकार नहीं दिया गया कि वह आपका वह भण्डार भर दे. समुद्र के पास पानी बहुत है पर जिसके पास जितना बर्तन है, उसमें उतना ही पानी आएगा. संसार में लक्ष्मी की कोई कमी नहीं, समृद्धि की कोई कमी नहीं. जिस व्यक्ति ने शुभ कर्म किया होगा, कोई दान पुण्य, कोई उदारता या कोई ऐसे शुभ कार्य के द्वारा धर्म आचरण किया होगा, तभी जाकर वर्तमान में प्रारब्ध मिला है. प्रारब्ध के अनुसार ही प्राप्ति होगी, इससे अधिक प्राप्ति कभी सम्भव नहीं. आप कभी ऐसा प्रयास न करें, गलत रास्ता न अपनाएं. सही मार्ग बतलाया कि उपार्जन कैसे करना है. इसे कैसे प्रामाणिकता से करना है. इसे कैसे मैत्री भाव से अपने धर्म को जीवित रखना है. आगे इन दोनों विषयों पर विस्तार से विचार करेंगे.
मैत्री भाव, जो धर्म का रक्षण करने वाला है और न्याय से अर्जित द्रव्य का उपयोग कैसे करना है ? उसका उपार्जन कैसे करना ? किस प्रकार का विवेक रखना ? भगवान ने यह आदेश नहीं दिया कि तुम भूखे मर जाओ, परन्तु जो तुम प्राप्त करते हो, उसमें विवेक रखो. उस प्राप्ति में यदि अधिक आ जाए तो उसका उपयोग कैसे करो यहीं से प्रारम्भ होता है – धर्मबिन्दु न्याय से उपार्जन किया हुआ द्रव्य मुझे चाहिए और जीवन की सबसे बड़ी जटिल समस्या उपार्जन की है.
कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा, जिसके पास वकील न हो. वकील के पांवों से ही आपको चलना पड़ता है, क्यों ? कारण यह है कि गलत करना है. अतः बिना वकील के सहारे चल नहीं सकेंगे और आप यह जानते हैं कि वकील पहले से ही आपको कहते हैं कि मुझे देख कर आना, मेरा यूनिफार्म कैसा है ब्लैक सूट. मेरा धंधा कैसा है, पहले समझ लो . कोई व्यक्ति ऐसा नहीं जिसके घर के अन्दर इस पाप का प्रवेश न हुआ हो और इस पाप के प्रवेश को रोकना है. कैसे रोका जाएगा? जरूरत कम करना, आवश्यकता कम होगी तो पाप स्वयं कम हो जायेगा. देखा-देखी बन्द कर दें, दूसरे ने कोठी बनाई तो मैं इससे शानदार बनाऊं दूसरा मर्सडीज़ गाड़ी लाया है तो मैं राल्सरायस लाऊं, दूसरे ने यह सूट सिलाया है तो मैं यह सूट सिलवाऊं. यानी ज़रूरत बढ़ती चली गई और उसी के अनुसार आपका पाप बढ़ता चला गया. आपके अन्दर की भूख और ज्यादा लगने लग गई और इसका कारण था कि हम असन्तोष से जलने लग गए हैं और प्राप्ति की वेदना में तड़पने लगे. प्राप्ति न हो पाने की स्थिति में हमारे मन की वेदना इतनी भयंकर हो जाती है कि हम तनाव से घिर जाते हैं और अन्ततः अप्राप्ति ही मृत्यु का कारण बनती है. अनीति से उपार्जन करने के लिए हम तनावग्रस्त रहते हैं और चेहरे से प्रसन्नता
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