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-गुरुवाणी
बड़े विद्वान थे. परन्तु त्यागी बन गए, गंभीर सन्यासी बन गये. दो कपड़ा लिया, झोली में डाला और अमेरिका रवाना. वहां अमेरिकन स्टीमर में कोई उनको मिला और पूछा, "आपका लगेज?"
“अरे! साधुओं का क्या लगेज (सामान) होता है. मेरे पास बहुत सामान है." “क्या सामान है?"
"एक चद्दर है. तुम नहीं जानते रात को ओढ़ता हूं चद्दर का काम देता है. गर्मी आई बिछा लेता हूं -- दरी का काम देता है. गर्मी आई माथे पर डालता हूं - छतरी का काम देता है. बहुत काम देता है – इसमें एक नहीं अनेक चीजें हैं. मुझे दो कपड़े चाहिए, बहुत हैं. प्रभु की मर्जी."
"आप अमेरिका जा रहे हैं?" "हां, इच्छा हो गई राम की, चलना है." “कहां ठहरेंगे?" "तुम्हारे यहां. "आपका कोई पहचान वाला?" “तुम पहचान वाले हो. यहां मिल गये."
उसके साथ. ऐसी दोस्ती हो गई वह व्यक्ति उनके प्रेम के आकर्षण से बाहर नहीं जा सका. सारी अमेरिका में धूम मचा दी. वापस आते समय जब वे हांगकांग में उतरे और जब कलकत्ता स्टीमर की टिकट बुक कराई, उनको एक मित्र ने आकर कहा कि आप जिस स्टीमर से जा रहे हैं. एक देश का बादशाह भी उसी स्टीमर से रवाना हो रहा है.
तो मेरी टिकट वापिस करा दो. एक स्टीमर में दो बादशाह होते हैं? धुन के धनी थे. टिकट कैंसल करा दिया गया.
वे क्या समझते हैं. यह भी बादशाह है. क्या दो बादशाह एक ही स्टीमर में जाएंगे?
हमारे साधु-संतों का जीवन ऐसा अद्भुत था. मैं तो कहता हूं कि आप आओ और देखो इसका स्वाद ही अपूर्व है. यह कहने का नहीं, अनुभव के लिए है. कोई चिन्ता नही है? कोई नोन-तेल, लकड़ी की चिन्ता है? कोई पगड़ी की या भाड़े की चिन्ता है? एकदम निश्चिन्त जीवन इतना सुगम जीवन और फिर भी लोग आते नहीं. यही तो दुर्भाग्य है.
स्वामी विवेकानन्द ने दस मिनट के बाद उसको देखा और पूछा -- “कैसे आए?" "आपके दर्शन के लिए, आशीर्वाद के लिए."
विवेकानन्द पहले तो विचार में पड़ गए और कहा “आशीर्वाद इस तरह नहीं दिया जाता. कुछ परोपकार कर के आएं, कोई सुन्दर कार्य आप कर के आएं – उसके बाद
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