Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 12
________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास जीवसमास का सम्बन्ध जीव-योनियों/जीवजातियों से और गुणस्थान का सम्बन्ध आत्मविशुद्धि/कर्मविशुद्धि से माना जाने लगा था। ज्ञातव्य है कि आचाराङ्ग आदि प्राचीन ग्रन्थों में गुण शब्द का प्रयोग कर्म / बन्धकत्व के रूप में हुआ है। ―Adid इस प्रकार यदि गुणस्थान सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से विचार करें तो मूलाचार, भगवती आराधना, सर्वार्थसिद्धि एवं कुन्दकुन्द के समयसार, नियमसार आदि सभी ग्रन्थ पाँचवीं शती के पश्चात् के सिद्ध होते हैं । आवश्यकनिर्युक्ति में भी संग्रहणी से लेकर जो गुणस्थान सम्बन्धी दो गाथाएँ प्रक्षिप्त की गई हैं वे भी उसमें पाँचवीं छठी शती के बाद ही कभी डाली गई होगी, क्योंकि आठवीं शती में हरिभद्र भी उन्हें संग्रहणी गाथा के रूप में ही अपनी टीका में उद्धृत करते हैं। हरिभद्र इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहते हैं कि ये गाथाएँ नियुक्ति की मूल गाथाएँ नहीं हैं ( देखें - आवश्यकनिर्युक्ति, टीका हरिभद्र, भाग २, पृ० १०६ - १०७ )। Jain Education International इस समस्त चर्चा से ऐसा लगता है कि लगभग पाँचवीं शताब्दी के अन्त गुणस्थान की अवधारणा सुव्यवस्थित हुई और इसी काल में गुणस्थान के कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, विपाक आदि से सम्बन्ध निश्चित किये गए। समवायांग में गुणस्थान की अवधारणा को जीवस्थान के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कर्मों की विशुद्धि की मार्गणा की अपेक्षा से प्रत्युत चौदह जीवस्थान प्रतिपादित किये गए हैं। समवायांग की इस चर्चा की यदि हम तत्त्वार्थसूत्र से तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि उसमें भी कर्मनिर्जरा की अपेक्षा से दस अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। कम्मविसोहिमग्गणं ( समवायांगसमवाय १४ ) और असंख्येय गुणनिर्जरा ( तत्त्वार्थसूत्र ९ / ४७ ) शब्द तुलनात्मक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इसी प्रकार समवायांग में 'सुहुं सम्पराय' के पश्चात् 'उवसामएवा खवए वा' का प्रयोग तत्त्वार्थ के उपशमक, उपशान्त और क्षपक शब्दों को स्मृतिपटल पर उजागर कर देता है । इससे यह भी फलित है कि समवायांग के उस काल तक श्रेणी-विचार आ गया था। उपशमक, उपशान्त और क्षपक शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ कसायपाहुड में व्यवहृत असम्यक्, सम्यक्, मिश्र एवं संयत, संयतासंयत ( मिश्र ) और असंयत शब्दों के प्रयोग हमें यह स्पष्ट कर देते हैं कि कसायपाहुडसुत्त और तत्त्वार्थसूत्र की कर्मविशुद्धि की अवस्थाओं के आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त को विकसित किया गया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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