Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 10
________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास श्वेताम्बर टीकाकारों से प्रभावित होती तो उसमें कहीं न कहीं गुणस्थान की अवधारणा अथवा गुणस्थान शब्द का प्रयोग अवश्य ही होता। क्योंकि तत्त्वार्थभाष्य को छोड़कर तत्त्वार्थसूत्र की एक भी श्वेताम्बर या दिगम्बर टीका ऐसी नहीं है, जिसमें कहीं न कहीं गुणस्थान की चर्चा नहीं हुई हो । यद्यपि पं० नाथूरामजी प्रेमी द्वारा तत्त्वार्थभाष्य की स्वोपज्ञता स्वीकार की गई है९५ किन्तु उनके अतिरिक्त अन्य दिगम्बर विद्वानों की यह अवधारणा कि तत्त्वार्थभाष्य, तत्त्वार्थसूत्र पर स्वयं उमास्वाति की टीका नहीं है बल्कि परवर्ती किसी अन्य उमास्वाति नामक श्वेताम्बर आचार्य की रचना है१६ से भ्रान्त सिद्ध हो जाती है । भी इन तथ्यों Jain Education International गुणस्थान की अवधारणा का ऐतिहासिक विकासक्रम गुणस्थान की अवधारणा के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझने की दृष्टि से यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है न केवल प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों में, अपितु दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य कसायपाहुडसुत्त में तथा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञ तत्त्वार्थभाष्य में गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी सुव्यवस्थित निर्देश उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि इन तीनों ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों जैसे दर्शनमोहउपशमक, दर्शनमोहक्षपक, ( चारित्रमोह ) उपशमक, ( चारित्रमोह ) क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, केवली (जिन ) आदि के प्रयोग उपलब्ध हैं। मात्र यही नहीं ये तीनों ही ग्रन्थ कर्म-विशुद्धि के आधार पर आध्यात्मिक विकास की स्थितियों का चित्रण भी करते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इन ग्रन्थों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हो पाया था । ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि समवायाङ्ग और षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थानों के नामों का स्पष्ट निर्देश होकर भी उन्हें गुणस्थान नाम से अभिहित नहीं किया गया है। जहाँ समवायाङ्गसूत्र उन्हें जीवस्थान ( जीवठाण ) कहता है, वहीं षट्खण्डागम में उन्हें जीवसमास कहा गया है । इससे यह सिद्ध होता है कि ये दोनों ग्रन्थ प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों, कसायपाहुडसुत्त, तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य से किञ्चित् परवर्ती और इन चौदह अवस्थाओं के लिये गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख करने वाली श्वेताम्बर - दिगम्बर रचनाओं से पूर्ववर्ती हैं। साथ ही ये दोनों ग्रन्थ समकालिक भी अवश्य हैं क्योंकि हम देखते हैं कि छठीं शताब्दी और उसके पश्चात् के श्वेताम्बर - दिगम्बर ग्रन्थों में विशेषरूप से कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थों तथा तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में गुणस्थान शब्द का प्रयोग बहुलता से किया जाने लगा 4. For Private & Personal Use Only m - ― www.jainelibrary.orgPage Navigation
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