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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
नियमसार जैसे अध्यात्म प्रधान ग्रन्थों में तथा तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि', भट्ट अकलंक के राजवार्तिक, विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक १० आदि दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। उपर्युक्त ग्रन्थों के मूल सन्दर्भों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि षट्खण्डागम को छोड़कर शेष सभी इसे गुणस्थान के नाम से अभिहित करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में भी आवश्यकचूर्णि तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेनगणि की वृत्ति १२, हरिभद्र की तत्त्वार्थसूत्र की टीका आदि में भी इस सिद्धान्त का गुणस्थान के नाम से विस्तृत उल्लेख पाया जाता है।
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हमारे लिये आश्चर्य का विषय तो यह है कि आचार्य उमास्वाति ने जहाँ अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैन धर्म एवं दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है, वहाँ उन्होंने चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से कहीं भी निर्देश नहीं किया है। तत्त्वार्थभाष्य, जो तत्त्वार्थसूत्र पर उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका मानी जाती है, उसमें भी कहीं गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख नहीं है। अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि क्या तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक जैनधर्म में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था ? और यदि उस काल तक गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो चुकी थी तो फिर उमास्वाति ने अपने मूल ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में अथवा उसकी स्वोपज्ञटीका तत्त्वार्थभाष्य में उसका उल्लेख क्यों नहीं किया ? जबकि वे गुणस्थान- सिद्धान्त के अन्तर्गत व्यवहृत कुछ पारिभाषिक शब्दों, यथा बादर-संपराय, सूक्ष्म-संपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह आदि का स्पष्ट रूप से प्रयोग करते हैं। यहाँ यह तर्क भी युक्तिसङ्गत नहीं है कि उन्होंने ग्रन्थ को संक्षिप्त रखने के कारण उसका उल्लेख नहीं किया हो, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में उन्होंने आध्यात्मिक विशुद्धि ( निर्जरा ) की दस अवस्थाओं को सूचित करते हुए एक लम्बा सूत्र बनाया है । ९४ पुनः तत्त्वार्थभाष्य तो उनका एक व्याख्यात्मक ग्रन्थ है, यदि उनके सामने 'गुणस्थान की अवधारणा होती तो उसका वे उसमें अवश्य प्रतिपादन करते । तत्त्वार्थभाष्य में भी गुणस्थान सिद्धान्त की अनुपस्थिति से यह प्रतिफलित होता है कि तत्त्वार्थभाष्य उमास्वाति की ही स्वोपज्ञ टीका है। क्योंकि यदि तत्त्वार्थभाष्य उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका न होती, तो तत्त्वार्थसूत्र की अन्य श्वेताम्बर - दिगम्बर सभी टीकाओं की भाँति, उसमें भी कहीं न कहीं गुणस्थान की अवधारणा का प्रतिपादन अवश्य होता । इस आधार पर पुनः हमें यह भी मानना होगा कि तत्त्वार्थभाष्य, तत्त्वार्थसूत्र की सभी श्वेताम्बर - दिगम्बर टीकाओं की अपेक्षा प्राचीन और तत्त्वार्थसूत्र की समकालिक रचना है। क्योंकि यदि वह परवर्ती होती और अन्य दिगम्बर
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