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की तरह तिरोभावमें थे. मरीचिने भी “ नयसार ग्रामचिंतक" की अवस्थामें उस मंदार तरुके वीज तो बीजे ही हुए थे सिर्फ आगेका क्रिया संदर्भ ही अवशिष्ट था, उसको भी " नंदनकुमार" के भवमें विशुद्धात्मवीर्यसे आचरणागोचर कर वह ही भी "वीर" के भवमें श्री ऋषभदेवके समान हो गये । जैनदर्शनमें "ईश्वर" पदके अधिकारी जो लोकोत्तर सामर्थ्यशाली-उत्तमोत्तम जीवात्मा होते हैं उनको “ सामान्य केवली " "और : तीर्थकर" इन दो नामसे उच्चारा जाता है. सामाः न्य केवली हरएक जातिमें-हर एक कुलमें-नर नारी आदि हर एक लिंगमें केवल ज्ञान केवलदर्शनकी संपत् प्राप्त कर सक्ते हैं। तीर्थकर-देव फक्त राजवंशी क्षत्रीयकुलोत्पन्न ही और बह भी पुरुषोतम ही होते हैं । पूर्वभवोपार्जित पुण्ययोगसे माताको चतुर्दश स्वप्नांसे अपने भावि महोदयकी सूचना दिलाते हुए जात मात्रही देवदेवेन्द्रोके पू. जनीय, वंदनीय, अर्चानमस्याके पात्र होते है ।
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके छ छ आरोका
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