Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijayji Free Jain Library

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Page 124
________________ [ ११३] हूवो मुझ ॥ पातिक दूर पुलायाजी ॥ श्री नेमिनाथ निरखा जवनयणे ॥ मनवांछित फल पायारे ज ५ ॥ श्री बन रत्न सुरिंदगणाधिप ।। वड तपगच्छ शिणगारजो । अमर रत्न मुरिपाट प्रभा. वक ॥ श्री देव रत्न गणवारजो ॥ ज० ६ ॥ पंडित शिरोमणि भानुमेरु गणि ॥ सुगुरुपसाय आनंदजी ।। श्री दधि गाम माहे दुखभंजन ।। विनव्यो नेमि जिणंदजी ॥ ज ७ ॥ करो कृपा नय सुंदर उपर ॥ दियो प्रभु शिवपुर साथजी । हो जो सदा सं-: घने सुखदायक ।। सुप्रसन श्रीनेमिनाथनी ॥८ ज०॥ कलश ॥ एम रेवता चल जात्रानुं फल ।। किंपि तस महिमा भण्यो । वाविसमो बलवंत स्वामी ॥ नेमनायक संथुण्यो ॥ श्री भानुमेह गणिंदु सेवक । कहे नयसुंदर सदा ।। शुविसाल देव दयाल अविचल ॥ आपो सुख मंगल मुदा ॥१॥ इति श्री ॥ ॥ गिरिनार उद्धार संपूर्ण छ । - -- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Unnaway. Surratagyanbhandar.com

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