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[ १२२] मुझे क्या कहना चाहते है ? जनसमाजने कहा संघ निकालकर तीर्थ यात्रा करे उसमे हम खुश है
और यथाशक्ति सहायता देनेको भोहरतरहसे त्यार है. परंतु विगय त्याग संबंधी आपका अभिग्रह बिना विचारा है. इस हठको आप छोडदें । रत्न शेठने कहा भला हाथी के दान्त बाहिर निकल कर फिर अंदर जाते है ? कभी नही । मेरा तो पक्का निश्चय यह ही है कि" कुछ भी नहीं जो छोडते है धैर्य आपत कालमें. " सोत्साह हसते है पडे जो दुख के भी जालमें। . " साहस नहीं घटता जिन्दोका वह बडेही वीरहै, "कृतकार्य होते है सदा संसारमें जा धीर है ।।
यह तो मेरा निखालिस धर्म मनोरथ है. जिस भुभ कामना का मैने अभिग्रह लिया है वह उभय लोक सुखा वहा तीर्थ यात्रा रूप प्रशस्य क्रिया है। कि जिसका फलादेश वर्णन करते हुए अनंत झा. नियोंने " हियाए, सुहाए, खम्माए, निस्सेय साए आणुगामित्ताए भविस्सह " असा खुद अपने श्रीमु
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