Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijayji Free Jain Library
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[ ९९ ] जे || मुज मन एहवो छे भावरे रत्न ॥ २ ॥ राणिजाया राओत सी ॥ कहे शेठने तामरे | चिरंजीवो रत्न तुं सदा । एह अमारुं कामरे रत्न || ३ | स्वामि आपण केरे कारणे ॥ त्रण जिम तोली लीजेरे || वृति तमारी अमे भोग || ते आंशी - गण केम कीजेरे रत्न || ४ || तब साधर्मो श्रावक कहे || सु संघ पती वातरे ॥ तुं नर रत्न कुखे धरौ ॥
धन्य तुमारी मातरे रत्र || ५|| लक्षोना उदर भरो तुमे ॥
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आशा ते सहूनी पुरोरे || मान दिजे पृथ्वि पति | - ॥ गुणे नही अधुरोरे रत्न || ३ || महिअल भार करवा अमे || अवतरा जगमां जाणोरे || प्रभु अमारां असार कलेवरां || अमने श्री संघने खप आणोरे रत्न || ७|| मदन पूरण बांधव विहुँ ॥ कहे भाइजी सुणो अर्जरे ॥ बड बंधव तमे अमतणा || ठाम पितानें समर्जरे रत्न || ८ || पिताने आघिन जेम बेट
डा || तिम अमे दास तमारारे ॥ तुम विजोगे सुनारा सवि || तुमे छो कुटंब सिणगारे रत्र || ९ || आगे. शमने लखमणा ॥ त्रिण जेम तोला चरण रे || काह
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